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कल्पना की वास्तविकता

 एक आधा अधूरा चिंतक होने के नाते कई बार सोचता हूँ की क्या कल्पना में कोई  वास्तविकता छुपी हुई है । क्या कल्पना से वास्तविकता का जन्म हो सकता है। आखिर कल्पनायें हैं क्या ? सिर्फ मन की गूढ़ता या किसी यथार्थ का चिंतन।  कल्पनाओं के झाड़ पर बैठकर कई बार कविता का सृजन करते समय मुझे लगता है की क्या कल्पना मानव मन की सृजनशीलता की पहली कड़ी है। क्या कल्पनाएं झूट का पुलिंदा मात्र हैं और  सत्य सदैव अपरिवर्तनीय होता है या फिर कल्पनाओं में भी जीवन का एक सार है , एक गूढ़ता है और एक रचा बसा संसार है ?  कभी कभी मस्तिष्क मन में बनीं कुछ सोचों, कल्पनाओं या  छवियों का मूल्यांकन करता है जिन्हें वह संसाधित करना चाहता है , कल्पना वास्तविकता की सीमा का आधार सा लगती है । यदि कल्पनाओं के संकेत सीमा पार कर जाता हैं , तो मन  सोचता है कि यह वास्तविक है यदि ऐसा नहीं होता है, तो मन  सोचता है कि यह काल्पनिक है। काल्पनिकता कभी कभी यतार्थ को जन्म देती सी लगती है । जान तक मन विचार शून्य है तब तक न कल्पना का आधार है न वास्तविकता की परिधि।  वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए कल्पना का होना बहुत जरूरी सा लगता है।   कल्पना