मन में कुछ तो घर कर गया है। कुछ है जो कभी निकलता नहीं । कितनी सच्चाई थी उन आँसुओं मे। आज तक ये समझ तो नहीं पाया। फिर भी हर बार तेरे सम्मान मे ही ठिठका हूँ ।
पर्ण झड़ेंगे तो दरख्त कहेंगे पतझड़ के बाद वो बसन्त आयेंगे। झुलसाया हो सर्द हवा ने कितना न स्नेह मरा है न गाछ मरेंगे । बर्फ़ पिघलने मे देरी तो होगी दोस्त! पर ‘बुग्यालों’ के फूल सच्चाई कहेंगे
ये ‘ ब्लोग’वो डायरी और ये कविता कहानी। वो लोग ये जीवन और ये तेरी मेरी मनमानी। सफ़र ये बदला कुछ भी नहीं है पहाड़ों सा मान बदला नहीं है। सम्मान कम तेरा हुआ नहीं है मन्दाकिनी भागीरथी गंगा तु ही है
यूँ हिमालय बना गया जीवन को, वो कौन है जो पहाड पे इन्द्रधनुषी रंग उकेर गया। यकिं है सम्मानों के शिखर पर कोई तेरे जैसा ही होगा .... पर वो तुझसा नहीं होगा......
यूँ जब कभी शून्य हुआ वो तेरा उपहास याद आया। ‘मन’ के विश्वास को उन सुनी बातों पे गिरता पाया। सम्मानों के शिखर पर रहा तु हरदम, यूँ लाम पर भी तेरा एहसास रहा..
किताबों मे खोये मन को वो कोई गीत बता गया। पढ़ते पढ़ाते ना जाने कौन सा एहसास दे गया। पहाड़ों के पीछे की दुनियाँ देखी न थी कभी। वो कि समुन्दर का खुला आसमान दिखा गया.....
समय कब तेरा हुआ कब मेरा हुआ। बहती दरिया कब कहॉ किसी एक की हुई। परिवर्तन नियम है सृष्टि का दोस्त! ये पवन झोंका है, कभी मन्द कर गया, कभी झंजावत दे गया ।।।
चेहरा पढ़ न लूँ भाव छिपाये सा रहता है, अब वो मुस्कुराहट थामे सा रखता है, वक़्त ने दूरियाँ कुछ यूँ बढ़ा दी... वो अपना सा निगेरबां रक़ीबों सा मिलता है.....
हार जाने का मन था, क्योंकि तेरा आज भी सम्मान है। सुना अब मेरी हार की शर्तें लगी हैं, और तु जीतने की ज़िद मे है, बेशक! जीतना नहीं था मुझे, पर परायों से हार गवांरा नहीं .....