हमारा
वेदना भयभीत होकर साँवन्तना मन दे गयी हम समर्पित कर चले एक निशानी साथ की है कहाँ मुमकिन जहां में हर फूल यौवन तक बढ़े यूँ ही नहीं अर्पित रहे हैं गंगा में कुछ दीप भी समर्पण की साख पर यातार्थ जीता है सदा यूँ ही नहीं शापित रहे हैं पत्थरों के झुण्ड भी हम अमरबेलों से कहाँ सब जड़ों तक बँध सके रात की घनघोर कालिख आंसुओं में बह गयी