रिश्तों की मर्यादा
तु शबरी के झूठे बेरों सा अब मन को भाया है पाषाण हुए इस मन को तूने स्पर्शों से जगाया है ज्ञान का तुलसी बीज रहा तु बरसों में उग आया है तु पदचापों का शासन है विश्वासों की मर्यादा है धनुरेखा का त्याग समर्पण वैदेही सी परीक्षा है चीरहरण की साड़ी सा तु सर्वस्व लुटाता अर्पण है चक्र कटी अंगुली का वो मौन सदा दोहराया है अतिपीड़ा में चक्रव्यूह की आतुर एक प्रतिज्ञा है तु आँख खोलती बरसों का तप रिश्तों की मर्यादा है तीरों की शैया पर लेटा भीष्म विजय की संकल्पना है गोकुल को एक सार सिखाता मुरली की शैतानी है आन बान मर्यादा वाली धाम ब्रज की राधारानी है भोजराज के मीरा सी तु कृष्ण समर्पित प्रतिभागी है तु स्नेह तरसती मन आलिंगन त्यागों की मर्यादा है मन की किसी दबी आस पर कर्म सिखाता पीपल है