मेरा बंसन्त
वो जो दरारें रही विश्वासों के बीच वो फैलाते गये तेरे मेरे अपने बनकर न वो मन जीत पाये न हम हार ही पाये कुछ खण्डहर मज़बूत नींवों पर खड़े रहें वो पीपल सा फिर खिलेगा वीरानों में कीकर सा हरा कर देगा रेगिस्तां को झूठ का जाल लेकर बहेलिया फिर न आयेगा बस ठहर जा जरा मेरे बसंत आने को हैं