मौन
मौन मन की कल्पना के प्राण का अवसाद तय है स्नेह की क्यारी जगत में राख होना तय रहा है नद नदी बिहड़ कटे सब खाक होना तय हुआ है डूबता सूरज कहां फिर वो उजाला बन सका है टूटते तन मन बदन में मन ढेर होना तय रहा है बह गये सब वो किनारे तटबन्ध बाँधे जो डटे थे अब प्रलय सब साथ लेकर बढ चली सब ओर लहरे मैं मिलूँगा बस समुन्दर गर्द या फिर सीपि बनकर