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Showing posts from July 28, 2024

चल मन

 सबके अपने लाक्षागृह हैं  सबके अपने कोपभवन सबका ही अभिमान बडा है  सबके अपने लक्ष्य अलग अपने अपने लोग सधे हैं  समय बटा है घौर अलग अपने अपने झूठ गढें हैं  अपने हैं आदर्श अलग बिछ जाना नियति है मेरी  आत्मसात परवाह कहाँ चल मन तु भी भीड बहुत है  सबकी है पेशेदारी  अलग अलग हैं जिम्मेदारी  चार चार चेहरे सबके चल मन तु भी काम बहुत है  रात हुई गहरी काली सुबह सबेरा फिर होना है  शाम बही नगरी सारी बजडी पर फटते हैं बादल  प्रघात हुआ है कुछ भारी कुछ कविता ने सांसे थामी  कुछ लौं मध्धम होती है चल मन तु भी बैठ किनारे  गंगा अभी ऊफनती है