चल मन
सबके अपने लाक्षागृह हैं
सबके अपने कोपभवन
सबका ही अभिमान बडा है
सबके अपने लक्ष्य अलग
अपने अपने लोग सधे हैं
समय बटा है घौर अलग
अपने अपने झूठ गढें हैं
अपने हैं आदर्श अलग
बिछ जाना नियति है मेरी
आत्मसात परवाह कहाँ
चल मन तु भी भीड बहुत है
सबकी है पेशेदारी
अलग अलग हैं जिम्मेदारी
चार चार चेहरे सबके
चल मन तु भी काम बहुत है
रात हुई गहरी काली
सुबह सबेरा फिर होना है
शाम बही नगरी सारी
बजडी पर फटते हैं बादल
प्रघात हुआ है कुछ भारी
कुछ कविता ने सांसे थामी
कुछ लौं मध्धम होती है
चल मन तु भी बैठ किनारे
गंगा अभी ऊफनती है
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