मानता कब है
कश्तियाँ बहा ले गए वो तूफां और थे गरज गए जो बदरा वो बरसते कब हैं लौटकर आना पड़े समुन्दर की सीमा है वरना पंछी को उड़ने की मनाही कब है तोड़कर बंदिशें आसमा में फ़ैल सकता है संस्कारो में खड़ा पेड़ खुला बादल कब है अपना हो नहीं सकता वो अपना लगता क्यूँ है मन जानता सब है पर मानता कब है