जमीं मेरी
दरकता सा पहाड़ हूँ खिसकती सी जमीं मेरी बहूँगा संग नदिया रे ! मेरा अस्तित्व ताखे है हिमालय से रहे सपने पिघलती सी जमीं मेरी चमकूँगा संग रौशनी रे ! मेरा रोशन अँधेरा है बढ़ता सा शहर हूँ मैं घटती सी जमीं मेरी जानूँगा संग दर्पण रे ! मेरा धुँधला सा दर्शन है छिटकती शाम सेहरा की ढलती सी जमीं मेरी अपनाऊँ संग समर्पण रे ! मेरी पहचान तुझ तक है