गुनगुनाता रहा
दरारों दीवारों पहाड़ो के पार कदम बढ़ के थम तो गए है कहीं मन दरिया सा फिर भी बहता रहा वो समुन्दर जब मेरे पास आने को था जतन से फिर फिर बनाता गया तुम जो मिटाने की कोशिश करते रहे कोरी उम्मीद तब भी सजता गया जब वो सूरज मेरा अस्त होने को था चला था जो दो पग, रुखसत हुआ वो अब भी यूँ नजरें गड़ाये रहा छंदों मै पिरोया गया जो कभी मन रुक-रुक के वो गुनगुनाता रहा