कथानक
जिस कहानी का कोई कथानक न था
उस कहानी की एक भूमिका लिख गया
द्वार अब भी कभी खटखटाये नहीं
मन के मंदिर में वो फिर भी बसता गया
जब भी आवाज़ दी मन के उस मौन ने
आँसुओं की कोई बहती नदिया मिली
चलते चलते जहाँ डगमगाए कदम
राह उनको मिली अपनी मंजिल गयी
जब भी मन द्रौपदी बनके आवाज़ दी
दोस्त अपना कोई कृष्ण सा ना मिला
हाथ फैलाके सर्वश्व त्यागा जहाँ
मन की इच्छा वहीँ जागृत हो गयी
उस कहानी की एक भूमिका लिख गया
द्वार अब भी कभी खटखटाये नहीं
मन के मंदिर में वो फिर भी बसता गया
जब भी आवाज़ दी मन के उस मौन ने
आँसुओं की कोई बहती नदिया मिली
चलते चलते जहाँ डगमगाए कदम
राह उनको मिली अपनी मंजिल गयी
जब भी मन द्रौपदी बनके आवाज़ दी
दोस्त अपना कोई कृष्ण सा ना मिला
हाथ फैलाके सर्वश्व त्यागा जहाँ
मन की इच्छा वहीँ जागृत हो गयी
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