झकझोर
जब उत्ताप के ज्वार पर बाँहों भींच लिया था तुमने सांसों की रचती खुशबू पर एक अधिकार दिया था तुमने स्पर्शों के कोमल आलिंगन रोम रोम हर्षाते हैं यादों की मीठी शामें तन मन झकझोर सी जाती हैं जब सर्द हुई पंखुड़ियों पर कोमल छुवन रखी थी तुमने खुले केश के कानन पर हक़ का निज़ाम दिया था तुमने सांसों की बढ़ती गहराइयाँ बाँध समय को देती हैं चेहरे की वो प्रखर छवि तन मन झकझोर सी जाती हैं जब दोहन भौतिक तापों पर विश्वास रिश्तों के रखे तुमने अधूरे अनबने बंधनों पर समर्पण का इतिहास लिखा है तुमने आशाओं के बनते पूल मिला मनों को देती है गहरी नीवों पर बढ़ती राहें तन मन झकझोर सी जाती हैं हुआ है बंधन रिश्तों का हुआ है रिश्ता अपनों से आपको को अपने से पाना द्वन्द यही जो लम्बा है पाने खोने पर टिकी उम्मीदें तन मन झकझोर सी जाती हैं