लब
वो लब जो खुले नहीं हिले नहीं बोले नहीं छुवन का अहसास ही मोक्ष की सी तृप्ति है देखा नहीं सोचा नहीं चाहा सदा माँगा नहीं जो खुल गए मेरे लिए एक समाहित तृप्ति है फर्ज अब जो कर्ज है समर्पण की बानगी तोड़ रिश्तों की दीवारें इस जीवन की तृप्ति है इस पत्थर पर घिस गयी नायब खुशबू कस्तूरी अमरबेल सी लिपट गयी हर रिश्ते की तृप्ति है बँध चुका बिश्वास हूँ बच गयी पहचान हूँ थम गए इस सफर पर मंजिल की सी तृप्ति हूँ