साँस थामे
सूख कर बंजर हुए जो खेत लहराते मिले शाम की दहलीज़ पर कुछ गुनगुनाते गीत थे हम वहाँ हर आस को मन में दबाये बीज मेहँदी खिल रही है साँस थामे मंदिरो की घंटियों से आशीष स्वर आते लगे वो नदी जो खो गयी थी लौटकर बहती लगी नफरतों के शूल थे जिन क्यारियों में कोपल अनोखी बढ़ रही है साँस थामे जो गली सुनसान थी वो अब चहकते खग वहाँ रौनकें जो थम गयी थी लौटकर आती लगी लू थपेड़े जल रही जिन दुपहरों में पनाग केशर बढ़ रहा है साँस थामे