मोक्ष
जो कण कण में बसा रहा
केदारभूमि सा बहा कभी
आध्यात्म लिए इस मन में था
और विद्यमान हर ओर रहा
जो साँस साँस ठहरा रहा
सरयू सा रोया कभी
हर त्याग लिए इस मन में था
और प्रीत जगाता और रहा
जो धूं धूं कर जलता रहा
मणिकर्णिका सा सोया नहीं
मोक्ष लिए इस मन में था
और पास बुलाता और रहा
जो दूर दूर सहमा रहा
कस्तूरी सा मिला नहीं
सौरभ सावन इस मन था
और राह घूमता रहा सदा
वो केदारभूमि भी मेरी थी
वो पावन जल सरयू मेरा था
वो खोई मणिकर्णिका मेरी थी
अब इत्र कस्तूरी ओढ़ा है
तू चिंतन लिए आध्यात्म रहा
तू त्यागों की परिभाषा थी
तू मोक्ष रहेगा इस मन का
तू शिव सा सावन मेरा है
Comments
Post a Comment