किनारो से
विश्वाशों के त्रिकोण में
वहमों के षट्कोण बने
बंधे रहे एक जाल में जो
वो कोने सबसे दूर रहे
शिखर सम्मानों के गिरे नहीं
मन सब खोखले हो गए
दिखती रही जो दूर निगम से
वो खाली होती मीनार रही
रास्ते जो भटके नहीं
मंजिल तक कभी ले न गए
बह गए जो साथ साथ
वो किनारो से बच निकले
वहमों के षट्कोण बने
बंधे रहे एक जाल में जो
वो कोने सबसे दूर रहे
शिखर सम्मानों के गिरे नहीं
मन सब खोखले हो गए
दिखती रही जो दूर निगम से
वो खाली होती मीनार रही
रास्ते जो भटके नहीं
मंजिल तक कभी ले न गए
बह गए जो साथ साथ
वो किनारो से बच निकले
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