अंकिता

दो बेटियों का पिता हूँ. ....... दुनिया घूमी और देखी है फिर भी हमेशा लगता है कि मेरे पहाड़ दुनिया की सबसे खूबसूरत , शांत और सुरक्षित जगह है।  पर तब के  जिस पहाड़ की मैं आज कल्पना करता हूँ क्या वो आज भी वैसे ही खूबसूरत, शांत , सुरक्षित हैं ? 1991 के आरक्षण आंदोलन की शुरुआत के दिनों का एक छोटा सा आंदोलनकारी था और इसका मलाल हमेशा रहा कि 1991 के आरक्षण आंदोलन से पनपे राज्य आंदोलन का कभी हिस्सा नहीं बन पाया क्योंकि पढ़ाई के लिए आगरा यूनिवर्सिटी जाना हो गया। आंदोलन के आखिरी दिनों में जब पौड़ी -श्रीनगर में आंदोलन के उग्र रूप ने करीब करीब तक के सब सरकारी प्रतिष्ठान जला दिए थे , वैसे ही किसी दिन घर जाते समय  श्रीनगर में बस में पास  बैठी एक लड़की से जब मैंने पूछा था -" भूली- उतना बड़ा आंदोलन और आगजनी होती हुई तो नहीं दिखी जितनी अख़बारों में पढ़ी थी "।  बहुत गर्व से उस लड़की ने कहा था " न भाई बहुत बड़ा आंदोलन किया है राज्य के लिए सब जला दिया था --- अब राज्य मिलकर रहेगा "
राज्य तो मिला पर अंकिता की हत्या के बाद मुझे बार बार उस लड़की का वो गर्व वाला  चेहरा याद आ रहा कि क्या इसलिए हमने राज्य माँगा था ? उत्तर प्रदेश के समय जो पहाड़ खूबसूरत, शांत , सुरक्षित और अविकसित थे क्या वो आज वैसे ही हैं ? पहले पहाड़ी "देहरादून वाला " हुआ फिर हिंदी बोलते बोलते उत्तर प्रदेश के अपराध भी अपने में मिलता चला गया।  अगर गौर से देखू तो ये अपराध एक तंत्र की तरह आगे बढ़ रहे हैं।  आज हरिद्वार ऋषिकेश होते हुए , कोटद्वार पौड़ी होते हुए , हल्द्वानी रामपुर होते हुए पहाड़ो में घुस गए हैं।
इस अपराध तंत्र को खड़ा करने में जिसकी सबसे बड़ी भूमिका है वो हैं हमारे नेता और ऑफिसर। पहाड़ के नेता पर शहरी नेता आज भी हावी है , पहाड़ी नेता आज भी प्रधान जैसा ही है और इसलिए शहरी नेता के अपराध के विरुद्ध बोल नहीं पता और उनके साथ लग जाता है।  ऐसे में अफसर इन "गधे" नेताओं को जानते हैं और अपनी मन मर्जी चलते हैं।  
अंकिता को मारा जाना, हमारी माँ बहनों और बेटियों को कुचलना जैसा है और अंकिता और उसके परिवार पर हुई ज्यातियों को छुपाना या छुपाने में साथ देना पहाड़ी नेताओं और अफसरों का "कमीनापन" है।
 ये न्याय न हत्या के  इतने दिनों बाद  25 लाख की घोषणा करनेवाला मुख्यमंत्री कर पायेगा न वहाँ का सरकारी तंत्र और न ही नाकारा  विपक्ष ।  ये लड़ाई फिर से आम पहाड़ी को लड़नी होगी।  
अंकिता पहाड़ के इस नए संघर्ष में तब  तक सही स्वरूप में जिन्दा रहेगी जब तक हम इस लड़ाई में किसी नेता या अफसरशाह को जगह नहीं देंगे।  यकीं मानिये जिस दिन कोई नेता इस संघर्ष की बागडोर अपने हाथों में ले लेगा उस दिन हम अपनी अंकिता कि फिर हत्या कर देंगे और आगे आगे आने वाली लाखों अंकिताओ को यही सहना पड़ेगा।  
स्कूल कॉलेज बारिश से बंद नहीं किये गए वो जानते हैं एक आंदोलन अगर जन्म ले सकता है तो वहां से ले सकता है .........
"उठा जागा उत्तराखंडियों धौ लगाणों वक़्त ऐग्ये......!!"

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