"न मातुः परदैवतम्"
दुनियां मातृत्व और पितृत्व प्रार्थमिकताओं के दो समाजों में बटीं हुई है। मनुष्य जीवन के पढ़ाई से लेकर अन्य सभी पहचान पत्रों में कहीं पिता का नाम लिखा जाता है कभी माँ का , कई दस्तावेजों में दोनों को नाम। कुछ ऐसे भी दस्तावेज़ होते हैं जहा केवल एक ही नाम की जरूरत है , ऐसे में कौन सा नाम ज्यादा उन पहचान पत्रों में ज्यादा उचित है ये एक विचारणीय विषय है। पिता की संपत्ति पर बच्चे के हक़ को बनाये रखने के लिए शायद ये उचित लगे की आदमी की पहचान के कागजों में उसके पिता का नाम लिखा जाय। पर जिस तरह आज समाज बदल गया है , परिस्थितियां बदली हैं और कई शादियां बहुत लम्बी टिक नहीं पा रही हैं , ये देखकर लगता है कि बच्चे की पहचान सबसे ज्यादा माँ से है इसलिए ऐसे पहचान पत्रों में जहाँ माँ न नाम नहीं है वहाँ माँ का नाम लिखा जाना चाहिए । पितृत्व प्रार्थमिकताओं वाले समाजों में ये थोड़ा मुश्किल हो सकता है पर समय और काल की मांग यही लगती है। यूँ तो माँ पिता में कोई तुलना नहीं हो सकती और सामाजिक पहचान के लिए दोनों जरूरी हैं पर जीवन पर जिसका हक़ है वो माँ ही हो सकती है । आज जिस तरह का समाज होता चला जा रहा