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पत्थर

तब भी जब तु आया था तब भी जब तु चला गया  तब भी पत्थर ही था मैं  अब भी पत्थर ही हूँ मैं  जब   तुमने रुलाया था  जब  तुमको रुलाया था  तब भी पत्थर ही था मैं अब भी पत्थर ही हूँ मैं  जब तुमने ठुकराया था जब तुमको अपनाया था तब भी पत्थर ही था मैं अब भी पत्थर ही हूँ मैं  जब तु मुस्कुराया था  जब तुमको हँसाया था तब भी पत्थर ही था मैं अब भी पत्थर ही हूँ मैं  जब जग हँसा हँसाया था  जब टूटा और तोड़ था   तब भी पत्थर ही था मैं अब भी पत्थर ही हूँ मैं  घिसा नही हूँ झुका नही हूँ  उन आसूंओ में भीगा हुआ हूँ  यूँ तब भी पत्थर ही था मैं अब भी पत्थर ही हूँ मैं  हों ठोकर या पूजा जाऊँ  फैंका जाऊ तोडा जाऊँ  तब भी पत्थर ही था मैं अब भी पत्थर ही हूँ मैं  करूँ नव सृजन हर दिन हर दिन कुछ तरासा जाऊँ  यूँ तब भी पत्थर ही था मैं अब भी पत्थर ही हूँ मैं 

वो तीन रूपये के आम (लघु कहानी )

  वो तीन रूपये के आम  बात तब की है जब में कक्षा चौथी में पढ़ता था, घर से २०-२५ किलोमीटर दूर एक छोटे से क़स्बे भीरी के प्राथमिक विद्यालय में चाचा जी की स्कूल में पढ़ता था । वैसे तो मेरे गांव में और आसपास  स्कूलें थी पर चाचा जी के  प्रेम और माँ - बाबा की अच्छी शिक्षा की खातिर चाचा जी वाले स्कूल में दाखिला दिलवाया गया था । एक रूटीन था कि सोमवार कि सुबह घर से आते थे और शनिवार कि शाम हमेशा घर जाते थे । सप्ताह भर उसी छूटे क़स्बे के स्कूल में पढ़ाई , मकान मालिकिन बुआ के बच्चों गीता और रैबा के साथ खेलना,   क़स्बे कि नहर में नहाना और शाम होते ही चाचा जी का पढ़ाई की कुर्सी पर बैठना यही अक्सर दिनचर्या थी।  क्योकि चाचा जी उसूलों वाले मेहनती शिक्षक थे इसलिए क़स्बे भर में उनकी क़द्र थी और मुझे सबसे ज्यादा ही प्यार दुलार भी मिलता था।   जब भी सोमवार की सुबह घर से चाचा जी के साथ स्कूल के लिए निकलना होता था तो माँ अक्सर हाथ में दो रुपये रख जाया करती थीं जिसे मैं अक्सर अपने गुल्लक में जमा कर दिया करता था । एक सोमवार दौड़भाग में ज्यादा मनाने के लिए माँ ने पांच रुपये दे दि...

स्नेह की याद

  ढ़ूढ़ता है मन कहीं प्रतिकार की आवाज जब  आ ही जाता है कहीं तु निर्मल सहृदय धार बनकर  खोता है मन कहीं कीकरों के सूखे रेगिस्तान में  आ ही जाता है कहीं तु नमी की बौछार बनकर  सोचता है मन कभी जो दूरियां कायम रहे  तु लिपट आता है देह पर स्नेह की याद बनकर  रहता है मन कभी जो द्वन्द की हर घाटियों में सीखा ही जाता है कहीं तु शांति का दूत बनकर 

विश्वासों के पुल

  गिर ही जाते हैं सब पत्ते एक दिन  सूखे पत्तो में ऐसे  जीवन तो नहीं  पूछ ही लेता हूँ वो चार शब्द फिर  जब भी लगा कि तु उदास तो नहीं  उन्मादों की लहरें सब बहा ले जाती है  कौन अहसासों की मुंढेर पर देर बैठा है किनारों पर खड़ा, देखना शुकूं देता है  विश्वासों के पुल जुड़ें रहें यहीं काफी है  नदी के बहने का दुःख कब किसे होता है  बहकर ख़ुशी देना उसका जीवन होता है  वो भॅवर एक छपछपी दे गया है जीवन को  यूँ हर बार डूबना कभी चाहता कौन है 

उन यादों से

अब भी घर के किसी कोने में  मिल ही जाता है वो बचपन  लुढ़क आते हैं जब वो कंच्चे  छिपाये थे जो मुद्दत से  अब भी किताबो के पन्नों में  मिल ही जाते हैं वो जज्बात  दिखते हैं जब वो सूखे फूल  संजोये थे कुछ यादों से  अब भी राहों के मोड़ों पर  मुड़ती दिखती हैं वो नजर   बढ़ते लगते हैं वो कदम  ठिठकते थे कुछ कहने से  अब भी हैं सब कुछ यादों में  बातें कल की सी लगती हैं  गुनगुनाते हैं कानो में  स्फूर्त जीवन को करने को  खोया तो लगता है सबकुछ  पाने की उम्मीद नहीं  बिखर जाते हैं लब अब भी लेकिन  जीवन की उन यादों से

तु मै

तु ब्रह्मकमल बुग्यालों का  मैं शैवाल समुन्दरी चट्टानों का  तु श्रद्धा शबूरी तन मन की  मैं राख रचाये औगण हूँ

बातें खुद से

बातें खुद से पूछ रही थी  चुप रहने से क्या जाता है  कहने का तब अर्थ नहीं है  भावों में जब वो रहता है  आँखें मंद हो पूछ रही थी  यादों से कब वो जाता है  सोने का तब अर्थ नहीं है  सपनों में वो जब आता है  आवाज़ कहीं से पूछ रही थी  लिखने से कब क्या होता है  शिलालेख का अर्थ नहीं है  मिटकर भी वो असर रहा है  मन ने मन से बातें की जब  तुझ तक कहने से क्या होता है  शब्दों तब अर्थ नहीं है  मौन सदा से प्रखर रहा है 

ठहरे हुए गुबार

वो चेहरे की हंसी पढ़ना मुश्किल है  वो साज-औ - श्रृंगार कुछ कहता है  पढ़ता हूँ बरस बाद लौटे वो शब्द  तुझे मानना न मानना अब बेबस है  वो ख़ामोशी  लिखना मुश्किल है  उन आंसुओ को भूलना मुश्किल है  सोचता हूँ ठहरे हुए  गुबार में   आंधियां आना न आना अब बेखौफ है  स्नेह की स्मृतियों को भूलना मुश्किल है  एकतरफा रिश्तों को तोडना मुश्किल है  मानता हूँ एकांत के कुछ क्षणों में  रिश्तो की डोर पर बस न तेरा है न मेरा है 

गुमनाम ही रह जाते हैं

लिखा तो सब कुछ था  कागजों में न नज़र आया  मुक्कदर में कुछ रेखाएं  खोने के लिए भी होती है  पढ़ा तो सब कुछ था  परीक्षा में न काम आया  किताबो  के कुछ पन्ने खाली भी रह जाते हैं माना तो सब कुछ था  अपनों में न गिना पाया  मनों के कुछ रिश्ते  गुमनाम ही रह जाते हैं 

तू लगे

बढ़कर रुकना है सबको  झुक जाना है एक दिन  जो कभी भी टूट जाऊ  बस जोड़ता पूल तू लगे  टूटकर गिरना है सबको  बिखर जाना है एक दिन  जो कहीं भी मिलूं धरा पर  बस साथ आता तू लगे  छोड़कर जाना है सबको  जुदा हो जाना है एक दिन  जो कभी भी चलूँ जहां से  बस याद तू आते लगे