स्नेह की याद
ढ़ूढ़ता है मन कहीं प्रतिकार की आवाज जब
आ ही जाता है कहीं तु निर्मल सहृदय धार बनकर
खोता है मन कहीं कीकरों के सूखे रेगिस्तान में
आ ही जाता है कहीं तु नमी की बौछार बनकर
सोचता है मन कभी जो दूरियां कायम रहे
तु लिपट आता है देह पर स्नेह की याद बनकर
रहता है मन कभी जो द्वन्द की हर घाटियों में
सीखा ही जाता है कहीं तु शांति का दूत बनकर
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