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सर्वभोम

जहाँ कभी विराम हुआ था सम्मान अभी भी उतना है जहाँ कदम वो ठिठक गए थे अहसास अभी भी उतना है बदली हर राहों में अब भी इंतजार तो उतना है छायादार खड़े पेड़ों में नीड बना खामोश रहा 'टूख़ः' कभी भी चढ़ ना पाया सूरज अब भी दूर रहा भीड़ रही है चारों ओर मन फिर भी शांत रहा जीवन का दर्शन है ये तो त्याग यहाँ सर्वभोम रहा पाने को मंजिल थी बहुत रुकना मन का विधान रहा जीतने को अम्बार पड़ा था हारना मन का त्याग रहा 

एक तेरे ही

एक तेरे ही बलबूते पर सपनों को सजाया है लांघे हैं पहाड़ वो सारे फिर दरिया को पाया हैं एक तेरे ही सुनने को ढोल ताश  बजाये हैं देखें हैं झरने वो सारे फिर शांतचित को पाया हैं एक तेरे से कहने को गीत गजल सब लिख डालें चढ़ी हैं खेतों की सीढियाँ   फिर "बुग्यालों" को पाया हैं कहने को तो नश्वर हैं सब फिर भी सपनों को सजाया हैं यूँ तो खानाबदोश ही रहे हमेशा फिर भी अपनों को पाया हैं 

प्रेम

प्रेम के प्रतिरूप रहे हैं अनेक  प्रेमी, प्यार और सर्वस्व रहा  कोई प्रेमी बना किसे प्यार मिला  स्वत: ही सर्वस्व पा ही गया  वो जो सबकुछ हार गया  राधा का प्रेम अनमोल रहा रुक्मणी को अपना प्रेमी मिला वो मीरा थी जिसको ज़हर मिला अस्तित्व  गया सबकुछ ही मिटा  पर सर्वस्व अपना पा ही लिया  प्रेम के रुप अनेक रहे  जो सत्य रहे पूजते ही रहे  मिलना खोना चलता ही रहा  पाना बिछड़ना लगा ही रहा  और मनों मे प्रेम खिलता ही रहा 

अचेतन

जब जब गाँव की गलियाँ मेरी  जब जब बौरायें झरनें पहाड के  माँ मुल्क ने पुकारा जब जब  जब जब गीत लिखे मल्हारी  याद रहा वो स्वरुप अचेतन तु बाबा! या वो रुप अकिंचन 

नींव की ज़मीं

बुलन्दियाँ मेरी  दिखी सबको  वो अडा रहा मेरी नींव की ज़मीं पर  ना हिला न डगा न कदम बहके  वो जमा रहा मेरी जड़ों के बजूद पर ओज था जो बचा अहसास सबको रहा वो ही कारीगर रहा  मेरे रास्तों की देहरी  पर  न कहा न सुना  न जताया कभी  वो साथ मे खडा रहा  बढती पड़ती हर बेल पर 

वो झिझक

झुकती नज़रें कोने से  अब बुलाती नहीं । उठती हथेली दुवाओं की  इबारत लिखती नहीं । अहसास दबे रहते हैं मन में,  यादों की कुछ कहानियाँ  कभी पूरी होती नही । छूवन सुने अहसासों की  अब महसूस होती नही । नज़दीकियाँ वो अपनों से ख़ुशबूओं को ढकती नही । ख़्वाब दबे रहते हैं मन में , स्नेह की कुछ पक्तियाँ   कभी पिरोयी नही जाती । मुड़कर देखने का मन होता है पास बुलाती वो नज़र नही । चलता है बहुत कुछ आसपास  खामोश पदचापों की आवाज़ नही । हँसी रहती है अब भी होंठों पर, पर तेरे सामने वाली वो झिझक  अब कहीं और के लिए नही आती ।

मृगतृष्णा

घास फूँस की झोपड़ी में जब बैठेंगा वो झील किनारे  देखेगा आती लहरों को  उन्माद फिसलती किरणों को सोचेगा सब मृगतृष्णा तब  कोपल फूल खिलाने को  हाथो से कोई कंकड़ फैंके  जब लौटती लहरों तक पहुंचेगा  सुखी बजरी, रेता ख़्याब  अंकिंचित कोई मन रह जायेगा  खाली पडी कुछ कौढियों में  फिर जीवन मर्म तलाशेगा  चेहरों में होंगें दर्श बहुत  कुछ स्याह सा छूट जायेगा  पास होगा सब कुछ सबके  कुछ छुटता सा याद आयेगा  खाली पडी स्मृतियों की ढेंढीं पर  कुछ ठक ठककर चला जायेगा 

सदियाँ बीत गयी

यूँ लगा कि सदियाँ बीत गयी ज़माने की सारी रीत छूट गयी तेरी चुप्पी डराती रही यूँ लगा कि अपनेपन की छाप मिट गयी यूँ लगा की गलियाँ विरान हो गयी जड़ो से जुड़ी हुई मिट्टी बह गयी  हाँसीयें पर रहा  हरदम यूँ लगा कि सांसे साथ छोड़ गयी यूँ लगा कि फिर कोई साज़िश हुई तटबंन्ध आस की बाढ़ के भेंट चढ़ गयी  शंकाओं मन को झकझोरती रही यूँ लगा कि वो खायी फिर गहरी हो गयी  यूँ लगा कि यादें कही खो सी गयी ‘बन्दगी’ के गीतों की बलि चढ़ गयी  बिष-बीज अंकुरित हुए हैं कही  यूँ लगा कि वो फ़सल फिर हरी हो गयी 

कुछ रह जायेगा

कुछ आयेगा कुछ जायेगा कुछ थमकर बह जायेगा  साथ रहेंगी यादें सारी  रुठने मनाने की कोई बैंठेगा कोई चल देगा  कोई थमकर मुड़ जायेगा  साथ रहेंगीं बातें सारी रुठने मनाने की  कोई कहेगा कोई चुप रहेगा कोई अनजान चला जायेगा  याद रहेंगें पल वो सारे  रुठने मनाने के  कुछ रहेगा कुछ उतर जायेगा कुछ फिका पड़ जायेगा  याद रहेंगे रंग वो सारे रुठने मनाने के

मिठाई

एक मिठाई बँट गयी कुछ कभी छुपाई गयी खाली होते डिब्बे पर कुछ चासनी सी बच गयी एक भोग में चढ़ाई गयी कुछ लोगों में बाँटी गयी जो अपनों को रखी थी  वो शैवाल में बदल गयीं यादों की तरह हैं ये मिठाई कभी मीठी कभी बेस्वाद लगी जो बंटी वो सराही गयी  जो बच गयी वो मन में रही