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मन के कोने पर

  वे जाने वाले चले गये पर मेले खामोश रहें । एक जीवन जीया है हमने इन खाली रंगमंचों पर  कदम कभी लौटे थे उलटे, नज़र झुकी किताबों पर  हर एक लम्हा जीया हमने ढलती शाम वीरानों पर  शब्द कभी वो लिख नही पाए आवाज़ रही जो मौन सदा  हर अहसास जीया है हमने जगती रात अंधेरों पर    जो बातें दोहराई तुमने सार यही है जीवन का   आज उजाले दीप जले वो ग़ुम थे मन के कोने पर

कोई होगा

  कभी रेत पर कुछ उकेरा जो  होगा  कभी लिख के कुछ तो मिटाया जो होगा  गुनगुनाये कभी गीत होंगे जो तुमने  कोई आहटों में   आया  तो होगा कभी फ़ोन पर कुछ टटोला तो होगा  कभी चित्र कोई मिटाया जो होगा  बड़बड़ाये कभी शब्द होंगे जो तुमने  कोई अजनबी याद आया तो होगा  कभी राह में कुछ तो भूला जो होगा  कभी ढलती शामों को देखा तो होगा  फूलों को जब भी निहारा जो  होगा  कोई मुस्कुराहट में आया तो होगा

कुछ रंग तू ले आ

  तु नीला सा समुंदर ला  मैं पहाड़ो की बिछी हरियाली  तु खुला सा आसमां बन जा  मैं उसमे तैरती बासंती चल कुछ रंग तू ले आ  चल कुछ रंग मैं ले लूँ तु छैनी और हथोड़ी ला  मैं पत्थर की जरीदारी तु रेती का महल ले आ  मैं कागज़ कलम थोड़ी स्याही  चल कुछ रंग तू ले आ  चल कुछ रंग मैं ले लूँ मैं ठहरा सा मकां बन जा  तु  उस पर दौड़ती तटिनी  मैं सुखी रेत मरुस्थल की  तु  उसमें घुलती मृगतृष्णा    चल कुछ रंग मैं ले लूँ चल कुछ रंग तू ले आ

मनिहार था चला गया

  सपने दे गया वो मनिहार था चला गया  आवाज़ दे न दे वो एक छाप छोड़कर गया  सांसे दे गया वो सोपान था बढ़ा  गया  मंजिल पा सकूँ ना एक राह सा बता गया  आस दे गया वो एक सार था ऊगा गया  मौसम बदल सके ना प्रसून सा खिला गया  संक्षिप्त रहा है जीवन वो सार को बता गया   सातत्य रहे ना रहे वो दरिया था बहा गया 

एक बानगी सी कोई

  मेरे नीड पर चहचहाती रही  खिलती कलियों की एक बानगी सी  कोई  रेतपर जो कहीं भी उकरता रहा   बोलती सोचती एक मूरत कोई  मेरे ख्वाब में कुछ भी रोशन  रहा  जगती किरणों की एक बानगी सी कोई  चौक पर जो कभी भी अँधेरा रहा  टिमटिमाती कोई जुगनुओं सी लगी  मेरी राह में कुछ भी पाता लगा  मिलते लक्ष्यों की एक बानगी सी कोई राह में जो कभी भी भटकता रहा  साथ  देती कोई अंगुलियों सी लगी

मौन हैं

  मौन कहाँ कुछ सुन पाया हैं  यादों के वीरानों में  तुम भी गुमशुम हम भी गुमशुम  लम्बी उम्र पड़ी है देहरी पर  मौन कहाँ कुछ कह पाया है  ख़ामोशी के आलम में  तुम भी चुप हो हम भी चुप हैं फिर बसंत खड़ा है देहरी पर  मौन कहाँ कुछ लिख पाया हैं  कागज के खाली ढेरों  में  तुम भी खाली हम भी खाली  फिर सुनी शाम है देहरी पर 

उन्मादों का एक सफर

  तृण तृण ढूंढ मचाती  आशा  खाली घर के सन्नाटे में  मन के लाक्ष्यागृह में जलता  उन्मादों का अपनापन है  धूं धूं जलकर खाक हुई जो सूखे खर की आग बढ़ी है  मन की मृगतृष्णा में चलता   उन्मादों का एक सफर  है कण कण रज का कानन सुना  कोने पर उम्मीद दबी है  प्रभारों के बोझ में दबता  उन्मादों का एकाकीपन  है

बस्तियां रही हैं न हस्तियां

 मेल मन का  रहा जो मिटेगा  यहीं  छोड़कर बादशाहत जाएगी कभी  यूँ तो साध ही रहा है साधन सही  न तो बस्तियां रही हैं न हस्तियां कहीं  दूरियां जो रही वो घटेंगी यहीं  छोड़कर मन को आहत गया न कभी  यूँ तो बस ही रहा है न चाहत कहीं  न तो बस्तियां रही हैं न हस्तियां कहीं  मौन जो भी रहा  बोलेगा वो यहीं  आह मन में लिए कब गया है कोई  यूँ तो पाया सदा है खोया नहीं  न तो बस्तियां रही हैं न हस्तियां कहीं 

बिखरा हूँ हरपल

  बह जाना बह जाना संग औ रे सागरिया नदिया किनारे पे झूले डाली  अमियाँ छूकर हवा का झौंका कोई निकले  धूलि कणों सा मैं बिखरा हूँ हरपल बढ़ जाना बढ़ जाना वो टेढ़ी डगरिया  सूरज दिखेगा जो माथे हो पसीना  बैठ जाना नीम छाँव घड़ी भर बटोहिया  मीठी लगेगी वो धुप निरहुआ थम जाना थम जाना दो पल पपीहरा  बरखा की बूंदों में छिपी है पिपासा  भीच लेना मुठी तू भी कोमल कदमदल हस्ती है छोटी मैं सिमटा हूँ हरपल   

चल जाना

  कहकर शब्द लिए वापस जो  वो गीत कभी दोहरा जाना  उन  राहों में खाली चलना  वो शाम कभी दोहरा जाना  खुली किताबो के पन्नों पर   वो कहानी पूरी पढ़ जाना  मन्नत के धागों से  बाँधी आस समर्पित कर जाना  खुले झरोखों पर टकती वो  नजर बहाकर ले जाना  सन्नाटे में खुद से कहती  आवाज़ कही दुहरा जाना  लिखकर शब्द मिटाये हैं जो  तुम बतलाकर कह जाना  रिश्तों के धागों की गेहड़ी खोल बोल कर चल जाना