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गांव को शहर में लाया हूँ

 मैं गांव को शहर में लाया हूँ  खुले खेत खलिहानों को  मीनारों से ढक  आया हूँ  गंगा में नहाने वाला अब  रौशनी से चौंधियाने लगा हूँ.... मिट्टी तन से सनी हुई जो   इत्तर से ओढ़ आया हूँ  शामों के घर पगफेरै अब  रातों में जगने लगा हूँ .... उम्रदराजी सम्मानों को  नामों से कहके बुलाता हूँ  दोस्तों पर हक़ अपनापन अब  सोच समझ के जताता हूँ  मैं गांव को शहर में लाया हूँ 

कहने और करने में

 शायद बहुत सही है तु जब तु कहता है कि  मेरे कहने और करने में फर्क है मेरी हर बातों में एक झूठ है  हाँ में उतना कहता नहीं  जितना माना है तुझको  उतना जताता नहीं  जितनी उम्मीदें हैं तुझसे  हाँ उतना समय नहीं देता  जितना वक्त कम है मुझमें उतना हक़ नहीं जताता  जितना मानता हूँ तुझको   यूँ है कि उथला है सागर बहुत  बहना है दूर पर सीमाओं ने बाँधा है  रहना है साथ तेरे  और समाकर ख़त्म हो जाना है  मेरी कोशिशों में कमी हो  तो शक सूबे हो मुझपर  और जो मेरे होने से अशांति हो  तो मेरी सांसों को ठहराव मिले जिंदगी   

उदासी

स्नेह के ख्यालों से  कब कौन उदास लगा है  ये बेचैंनी है जो चहेरे को  मायूस कर जाती है एक तेरा होना ही  हर खुशी है मेरे जहां की मैं परेशां हूँ कि गुस्सा हूँ  मन की रौनक तेरे नाम से है उठता है भरोसा कभी जब  अपना कुछ कर न पाये ये घडी परीक्षा की है  चल कुछ दूर साथ तो सही रास्तों में धूप होगी  तो सुहानी शाम भी होगी काखों पर रखी  यादों की कोई गठरी भी होगी  चल हंसकर करते हैं  तय रास्ते कुछ दूर रास्ते की मंजिल भी तु है  और रास्तों के निशां भी तु

गहराईयां नही

मैं इतना जरूरी कब था  कि तु मेरे लिए जगा रहे रात भर मेरी बातों में इतनी गहराई कहाँ  कि तु सुनता रहे दिनभर एक दिन यूही डूबना है मुझे  खुद के आकाश में  मैं जानता हूँ मेरा सफर  मेरे बस का नही है  वक्त भी तेरा है नजाकत भी तेरी  और ये निजाम भी तेरा मैं पहाडों से लुढका पत्थर हूँ बस ये रोकना मेरे बस का नही

तु ही है खामोश

मन जब आधा अधूरा हो, तो चुप रहना ही अच्छा बातों की मेरे नैपथ्य में एक चुलबुल चेहरा रहता है शब्द बनाने पडते हैं जब तु खामोश रहता है यही खामोशी एक दिन मुझको अकेला करके छोडेगी मेरे हर ध्यान में तु है  मेरे हर कर्म में तु है तु है सब सत्य बाबा सा तुही महादेव सा भी है तु ही मन की है जागृति ये खामोश सांसे तुझसे हैं

थोडी दूर

तुझे मनाने के लिए एक उम्र कम है जिन्दगी फिर भी बस तुझपे कुर्बान है जिन्दगी  मेरे अहसासों का उपहास ही सही फिर भी राहों की तलाश तुझ तक है जिन्दगी शब्दों से निकलकर रचना है खुद का संसार पगडंडियों पर अधूरे ही सही छोडने हैं निशां गुस्से की दुकान से खरीदना है समर्पण मुझे  आ साथ तो कुछ दूर अपनी दुनियां बसानी है जिन्दगी

आखिरी

आखिरी एक उम्मीद है सफर जिन्दगी या तु संग है या जीवन कहाँ अजनबी उस सत्य की तलाश में हूँ जो शायद मेरा नही मैं रोहताश नही जो ॠण तेरा उतार दूँ उम्मीदों की अग्नि हूँ बन्धनों का फेरा भी जलती हुई चिता हूँ स्नेह का हवन भी नदी का ऊफान हूँ बच्चों की मुस्कान भी मैं शकुन्लता का अभिशाप नही जो तुझे भुला दूँ कविता में रचा बसा एक खोया संगीत हूँ कहानी के विन्यास का एक अधूरा मर्म हूँ सजती हुई चिता का आखिरी स्पर्श हूँ मैं पदमावत का जौहर नही जो मुह मोड लूँ उम्मीदों की साख पर झूला डाले हूँ मैं सावन की शाम में धूप नैवेध्य लाये हूँ मैं ठहरा हूँ जिस जगह बस तेरे इन्तजार में हूँ मैं वो भाव नही जो तेरा होकर तुझसे दूर रहूँ

आयेगा तो सही

उम्मीदों का एक तारा दिखता तो है दूर कहीं  वहीं आशंकाओं के बादल लुकाछिपी करते हैं कहीं बूँदें गिरती तो हैं स्नेह की इस रेगिस्तां पर  किकर ही सही आशाओं का बसन्त आयेगा तो सही तस्वीर नही न वो बारिश है न हाथों में हाथ कहीं न मंहन्दी का रंग है न गात पर छापों का निशां कोई बातों का अपनापन और लबों की सूर्खिया नही बरसों के बाद ही सही तु खेवनहार आयेगा तो सही

प्राण तु है

तेरे बिन जीवन रहा खाली एक जंजाल तेरे संग जीवन बना कविता गीत समान दो घाटों की दूरी पर बही है नदिया पार एक पुल बनाकर भर गयी तु जीवन में अभिमान कदमों को दिशा मिली मन को एक प्रवाह रचता बसता तु गया पत्थर को  जैसे प्राण मन की दुविधा खडी रही सांसो को ठहराव अब रंग ले मनरे तुझसे है जीवन की पतवार

बैरागी

मैं बैरागी ही रहूँगा न चाह रही सम्मान की न तेरे मोह की इच्छा  तुझ में खोकर  खुद को समर्पित  मुझे सच पर जीना होगा तेरे मन की तु जाने,  मैं बैरागी ही रहूँगा सोच रही दिनभर से तुझपर न प्रश्न कोई पुछूँगा न जताकर तुझपर अपना हक  तेरे नाम की धूनी रमूँगा तेरे समय पे छोडा है तुझको मै पलपल याद करूँगा मैं बैरागी ही रहूँगा इन्तजार सांसों का मेरी न आस कोई पालूँगा न जाऊँगा तेरी इच्छा पारे  महादेव से अरज करूँगा तेरे निर्णय पर छोडा तुझको मैं अक्षर सः निभाऊगाँ  मैं बैरागी ही रहूँगा