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लौटती जरुर है

जिसे बिना सोचे ही लिख लेता हूँ  यादों के गहरे समुन्दर में  एक पत्थर सा उछाल देता हूँ  अस्तित्व को तलाश करती कोई आवाज़ तुझसे टकराके लौटती जरुर है  जिसे बिना देखे ही समझ लेता हूँ  सुनसान कमरे के उस आईने में  अपने से प्रतिबिम्ब को झकझोर देता हूँ  अंधेरे को चिरती प्रकाश की कोई किरण तुझसे टकराके लौटती जरुर है  जिसे बिना छुये ही महसूस कर लेता हूँ  अंगुलियों की उस झन्नाहट मे  यादों का एक गीत सा रच देता हूँ  शब्दों के अनसुलझे जाल मे कोई कविता तुझसे टकराके लौटती जरुर है 

सुनहरी प्रभात

किसे जीतकर भी शुकुं नही कोई हार कर भी ख़ुश है  ये बस मनों की बात है  कभी मुश्किलों के पहाड हैं  कभी सुनहरी प्रभात है  कोई पाकर सब अकेला है कोई टूटकर भी साथ है  ये सब विधी का विधान है  कभी स्याह घनघोर रात है कभी सुनहरी प्रभात है  कोई बताकर कुछ जता न सका कोई चुप रहकर भी सब कह गया ये बस समझने की बात है  जब झूठ के पूलिन्दों की हार है  और यहीं सुनहरी प्रभात है 

अच्छा है

ये संशय भी अच्छा है  बन्द आँखों से पढ़ना है  लिखी हुई कहानी का  अन्त न हो ये अच्छा है  ये मौसम भी अच्छा है बिन बरसे बादल उमड़ा है बहती हुई नदियाँ  का  कोई छोर न हो ये अच्छा है  ये साथ ख़ामोशी का अच्छा है  पलकों की नमी सलामत है गरजती गिरती उस बिजली का  वो तेज़ उजाला भी अच्छा है 

तेरे मेरे बीच

तेरे मेरे बीच बना पुल इस अंधड़ में जिन्दा है बस इतना बिश्वास था मेरा बाक़ी कुछ नहीं चाहा है तेरे मेरे बीच की बातें यूँ तो बस ख़ामोशी है 'मन' 'सच्चाई' के पास रहा है बाक़ी सब पहरेदारी है तेरे मेरे बीच की दुनिया यूँ तो बहुत वीरान रही फूल खिले हैं फिर भी उसमे बाक़ी सब काँटेदारी है तेरे मेरे बीच की नजदीकी यूँ तो अक्सर मीलों है दूर ही रहा है हिमालय मेरा बाक़ी साथ चली तन्हाई है ..

न तेरा न मेरा

जाने का ग़म यूँ तो नही  खुशी पलभर की ही तो थी  अपना था कौन राह-ए-गुज़र  मंज़िल यहीं उदास थी  थमता लगा जो राह-ए-शहर नदियाँ वो अपनी बहती लगी  सोचा जिसे वो राह-ए-बहर  रुकती कोई साँस थी  तेरा नही न वो मेरा हुआ  करता रहा बस ये नादांनियां  संम्भाला जिसे वो दर्द-ए-जिगर न तेरा हुआ न मेरा कहीं 

दिन आम नही

जिसने पिछले साल  भेजी थी  मित्रता दिवस की शुभकामनाएँ  वो अबके खामोश था  शायद, परख लिया होगा यूँ आम तो हम भी न थे  जिसने दुपट्टे को थामा था अदब से रिमझिम बरसा था जो कभी  वो अबके सावन सूखा ही रहा  शायद, बरखना भूल गया होगा यूँ तो हर बारिश मे भीगे हम भी नहीं थे  जिसकी झुकती नज़रों मे  पायी थी सम्मानों के समुन्दर की गहरायी वो अबके सतह पर ही दिखा शायद, अदब वो भूल गया होगा यूँ तो नज़र सबसे हमने भी मिलायी नही  थी

तु नदारत था

जिसे तेरे लिए सोचा था अब अपने से शुरु किया उत्साह उमगं बरक़रार था  पर फिर तु नदारत था  जिस मंच तेरा हाथ होना था अब ख़ुद से चढ़ना  पड़ा  मंज़िलें वहीं खड़ी दिखी  पर फिर तु नदारत था जिस महताब को साथ देना था अब अकेला ही बढ़ना है  भीड़ फिर एक बार वहीं दिखी और तु था कि नदारत था 

अच्छा लगा

बढ़ चलो अब बहुत हुआ दीदार को तरसता लगा चलचित्र के पट पर कुछ बदलता अच्छा लगा कब तक खामोश बैठोगे ख्याबों को सोचता लगा रास्तो की मज़िलों पर कुछ ठिठकता अच्छा लगा वक्त के साथ जो गहरा हुआ जताता रहा छुपाता रहा जिंदगी के 'केनवास' पर रंग उकेरता अच्छा लगा

तेरे जैसे हैं

वक़्त कब अपना हुआ समय कब थमता लगा वो सब भी तेरे जैसे हैं दो घडी रूककर चल दिए दिवशावसान के छौर पर रात्रि के इस पहर में ये काल भी तेरे जैसे हैं इस उहापोह में खामोश हैं मन में उजाला हैं बहुत घनघोर काली रात हैं ये पक्ष भी तेरे जैसे है जो साथ हैं पर दूर हैं 

कोशिशें करता रहा

जब आवाज़ खामोश हो जुबाँ कुछ कहना चाहे और नज़र तुझे पढ़ना चाहे ऐसे मे भी ये मन सदा गूंगा और अनपढ़ ही रहा.... आशाएँ अन्नत होती हैं विचार हर दिशा घूम आते हैं ख्याब कुछ देखना चाहे ऐसे मे भी ये मन सदा एकटक तुझे सोचता ही रहा .... समय सब दिखा जाता हैं कलम सब लिख जाती हैं कहना जब हो बहुत कुछ ऐसे में भी ये मन सदा गुमशुम संभलने की कोशिश करता रहा