अच्छा लगा

बढ़ चलो अब बहुत हुआ
दीदार को तरसता लगा
चलचित्र के पट पर
कुछ बदलता अच्छा लगा

कब तक खामोश बैठोगे
ख्याबों को सोचता लगा
रास्तो की मज़िलों पर
कुछ ठिठकता अच्छा लगा

वक्त के साथ जो गहरा हुआ
जताता रहा छुपाता रहा
जिंदगी के 'केनवास' पर
रंग उकेरता अच्छा लगा

Comments

Popular posts from this blog

कहाँ अपना मेल प्रिये

दगडू नी रेन्दु सदानी

कल्पना की वास्तविकता