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तटबंध

 तू भी न आया  मुझसे भी न जाया गया  शायद कहीं सीमाएं टूट न जाय स्नेह की  इसलिए उन्मादों के तटबंध नहीं तोड़े जाते  तुझसे भी न झाँका गया मैं भी लाँघ न पाया  जिज्ञासाओं के माकन छूए नहीं जाते कहीं  इसलिए दिवार अनुभूति की पार की नही जाती   तुझसे भी न कहा गया मैं भी सहमा सा रहा  कहीं दायरे खुद को खींच न लें नजरों के  इसलिए असर मनों के दिखाए नहीं जाते  तुझसे भी न लिखा गया मेरी भी सीमाएं रही  कहीं भावनाओं का बिखराव देख न लें सभी  इसलिए हर बात कहीं भी नहीं  जाती 

शामिल

 अक्सर लिखकर मिटाता हूँ  वो उसका नाम और यादें  उजाड़े कहाँ जाते हैं  घोंसले जो खुद बनाये हों तु शामिल मेरे जहां में है  कुछ यादों में कुछ भावों में  वो बनता बिगड़ता है  सपनों का जहां मेरा  तु आये या नहीं आये  मनो के बीच रहता है  कहां भूला वो जायेगा  जो मन के पास रहता है 

कुछ इंतजार

  कुछ इंतजार कुछ लम्बे होते हैं  जो दूर होते हैं वो पास होते हैं  पाया तो बहुत कुछ है जीवन में  कभी खोते हुए पल भी अच्छे लगते हैं  मिलना न मिलना दो  पहलु हैं  फिर भी सिक्के अपने पास होते हैं  उछाला तो बहुत कुछ है जीवन ने  कभी ठहरते पल भी अच्छे लगते हैं  कोई आये न आये बेकरार तो हैं   शंका के बादल देर से साफ़ होते हैं ढूंढा तो बहुत कुछ हैं अँधेरे में   प्रयासों के कदम कामयाब होते हैं 

वो चाँद

  यूँ ठहरता कुछ भी नहीं  मंद पवन और बहती नदी  उम्मीदों की साख पर मैंने  वो चाँद ठहरते देखा है  यूँ साथ चलता कुछ भी नहीं  परछाई और सड़क मंजिल की  उम्मीदों की राह पर मैंने  साथ चाँद को चलते देखा है  यूँ कहता कुछ भी नहीं  विश्वास या भरोसा मन का  उम्मीदों के आसमान पर मैंने  वो चाँद चमकते देखा है 

एक गठरी

 एक गठरी में बचपन समेट लाया हूँ  बिसरे कुछ पलों को साथ लाया हूँ  बच्चों के चेहरे की ख़ुशी ने बताया है मुझे  मैं बचपन सुनहरा छोड़ आया हूँ  सिमित दुनियां में फैला आकाश ढूँढ लाया हूँ  ओखली में जुगनुओं को बांध आया हूँ  चौक में फैली रौशनी ने बताया है मुझे  मैं बचपन सुनहरा छोड़ आया हूँ  खुले हिमालय की चमक देख आया हूँ  खेतों में सरसों के फूल खिला आया हूँ  मिट्टी की सोंधी खुशबू ने जताया है मुझको  मैं बचपन सुनहरा छोड़ आया हूँ

आंदोलन के केले !! ( कहानी)

  आंदोलन के केले !!  बात १९९०-९१ की है उन दिनों देश में आरक्षण आंदोलन बढ़ता जा रहा था और हर विद्यार्थी की तरह हमारे स्कूल के बच्चे भी आंदोलन में कूदे हुए थे।  मुझे स्कूल में मेरे गुरुओं ने छोटे नेता का नाम दिया था और मेरे एक दोस्त को बड़ा नेता नाम दिया था वो शायद  इसलिए कि हम दोनों किसी भी विषय पर ठीक - ठाक भाषण दे देते थे आउट कई बार स्कूल को मद्य- निषेध और कई अन्य भाषण प्रतियोगिताएं में पुरुस्कार जीतकर लाये थे।  उन दिनों एक बार स्कूल में ही अपने प्रिंसिपल के नाम लेकर ही उन्ही के सामने हाय- हाय के नारे भी लगवा दिए थे और ये उन गुरुओ कि महानता थी कि उसके बाद भी वो हमे कहते थे कि भाषण में क्या अच्छा था और कैसे उसे सुधारा जा सकता था।   यही करते करते एक दिन सुबह ही सबने तय किया कि आज आस पड़ोस के सब स्कूल - कॉलेज बंद करवाने हैं और सबको लेकर एक धरना करना है।  पड़ोस के ३ किलोमीटर कि दूरी का स्कूल हमसे हमेशा डरा सा ही रहा और हमारे जाते ही सुबह छुट्टी कि घंटी बजा गए।  थोड़ा भाषण बाजी के बाद दोनों स्कूलों के बच्चे आगे बड़े और ७ किलोमीटर दूर दुसरे स्कूल में प...

कुछ नहीं है

 कुछ नहीं है फिर भी एक आस है  संवादों के सिमित दायरों में  रिश्तों की एक मिठास है।   कुछ नहीं है फिर भी विश्वास है  खींचती  बढ़ती दूरियों में   अनछुआ सा कोई तार है।।  कुछ नहीं है फिर भी अहसास है सींचता है  खालीपन में   स्मृतियों का कोई प्रयास है।।।  कुछ नहीं है फिर भी मन उदास है  कहता है सबकुछ मौन में   यादों का एक इतिहास है।।।। 

गढभाषा आन्दोलन

क्वे लाग्यां इतिहास रचौंणां क्वे कविता म्यसोणां छन ये गढ़भाषा आंदोलन को मैं छोट्यू -मोट्यु डण्डयौंर छौं ।   गुस्ठि होणी  च पंगत लगयि च क्वे संस्कार बचौंणा छन  ये गढ़भाषा आंदोलन को मैं छोट्यू -मोट्यु स्वग्वौंर छौं ।  शबद बज्यैलयें नपती रच्ये द्ये मांगल्य गीत लगयौंणा छन  ये गढ़भाषा आंदोलन को मैं छोट्यू -मोट्यु डुन्गयोर छौं । धुवल्यीं लगे कैन म्युच्यल्यी जगे केन क्वे मौंल्यार लगौणा छन  ये गढ़भाषा आंदोलन को मैं छोट्यू -मोट्यु पणग्यौंर छौं ।  गढ़कुमाऊँ की खोज कना क्वीं क्वे गढ़ खड्यू करौंणा छन  ये गढ़भाषा आंदोलन को मैं छोट्यू -मोट्यु पिठल्योर छौं । माटु  खणि जा भीड़ चिड़्ये जा गढ़ धरती धौ लगनी च  ये गढ़भाषा आंदोलन को मैं छोट्यू -मोट्यु मल्यौर छौं ।  मंदिर बडौंलू गढ़भाषा को तुम सब ल्योन की मेहनत च  ये गढ़भाषा आंदोलन को मैं छोट्यू -मोट्यु छपलौर छौं ।

शिवजटा

अस्तित्व छोटा संकरे रास्तों पर  मैं मचलती दौड़ती एक योवन हूँ   मिलना नही उस बडे समुन्दर  मै जलतन्त्र की छोटी नदी हूँ  फैले से उन्मुक्त आकाश में  विरह की बाँसुरी की धुन हूँ  सिमटा हुआ सा प्रवाह है  मैं पहाड की छोटी नदी हूँ तुम समुन्दर से भी गहरे लाख दम्भ मन में दबायें  खुद की पहचान खोकर  मैं शिवजटा की छोटी नदी हूँ 

मौन आभास

उन आख़री शब्दों में भी ढूँढता स्नेह हूँ  आख़री कुछ पंक्तियों में समग्र का शेष हूँ  बह चला हो दूर जो ताँकता अब उसको हूँ  मैं नदी में टूटता घुलता कोई अवसाद हूँ  अग्निपथ पर रश्मिरथ सा चलता हुआ सवार हूँ  हर कलह की देह पर असीम शान्ती का संवाद हूँ  उड चला जो अंबुधि में वो लौटता एक विहग हूँ  मैं खुद की तलाश में खुद को ढूँढता एक मार्ग हूँ  अनकही कहानी के उपसर्ग का एक भाव हूँ  कविता के मूल का गूढ़ सा अहसास हूँ  कह दिया आवेश में उस भावना का मूर्त हूँ  मै मौन रहकर मौन के विश्वास का आभास हूँ