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तुमसे है

खोना पाना तुमसे है  स्नेह समर्पण तुमसे है  जगती रातें बहती शामें चलती सांसें तुमसे हैं लिखना पढना शब्द ये गढना सार समर्पण तुमसे है कहती कविता हंसती बातें मिलती सांसें तुमसे हैं  रोना खोना तुझसे है साथ समर्पण तुमसे है दिन बीता जो साथ अकेले यादें सांसें तुमसे हैं  हाथ हथेली तुमसे है बेखुदी समर्पण तुमसे है हाथ पसारे बाँहें भींचे जिन्दा सांसें तुमसे हैं 

फ़िकर

 हम समय को साथ बाँटें ये कहाँ मुमकिन सदा  याद हो मन साथ कोई ये छुपा रहता कहाँ  यूँ तो होंगे काम कुछ हर दिन मिला जाता कहाँ  एक है अहसास गहरा संग बहता सा लगा  हम नदी सा अब निकलकर छोड़ आये हैं पहाड़  रास्ते बहते लगे पर है समुन्दर वो कहाँ  यूँ तो हमको मंजिलों की अब फ़िकर रहती कहाँ  साथ है अहसास तो तू साथ अपने हैं सदा  हम सफर में साथ हैं बढ़ते रहे राहें सदा  आस के कुछ बीज पनपे हैं कलश में यूँ सदा  यूँ तो तो हमको रूठना और यूँ मानना है सदा  एक है गहरा निशा जो साथ देगा यूँ सदा 

एक तस्वीर

 तस्वीर जो तेरी मेरी मन छाप घर करके गयी  एक समर्पण बानगी  एक साथ में ठहरा गयी  हों युगल समवेत से  मन उतरकर जो रही  बाँह जो थामी रही  एक मकां छत सी लगी  जो सदा पूरक लगे  वो साथ क्यों चलते नहीं  टेक कर सर रख गयी  और मन की कविता बन गयी  है यही निश्चय सदा  बे झिझक जीना बंदगी  दे करके यूँ सांसे सभी  मन जित करके रह गई 

कदम रुकते नहीं

 खुशनुमा है जिंदगी  कुछ बात होगी कहीं  तु समर्पण लिख गया  मैं नाम तेरे जिंदगी  हों सदा दिन एक से  ये नहीं माँगा कभी  तु पास रहना मन सदा  मैं साथ तेरे जिंदगी  हर शाम की ताबीर हो  ये जरूरी तो नहीं  कोशिशें करना सदा  मैं दौड़ लूँगा जिंदगी  हो सदा सोचा सभी  जानता मुमकिन नहीं  सोच में रखना सदा  मैं पा ही लूँगा जिंदगी  साथ हो स्नेह जब  तब कदम रुकते नहीं  कह भी जाना बात सब  मैं बाँट लूँगा जिंदगी 

हसीं शाम

 शाम थोड़ा नशे में जो मदहोश थी  अपने आगोश में चाँदनी भर गया  वो सिमटकर कहीं घुल गया साथ में  मैं बिखरकर वहीँ और जम सा गया  सुर्ख होते कमलदल खिल ही उठे  भीगी बूंदों का उन्माद मन भर गया  जकड़कर के बाहें खुली ही नहीं   लाल चेहरे का समर्पण पढ़ सा लिया  बात निकली जो मन से मन कह गयी  शब्द आखों में आकर ठहर ही गए  पाँव में पाँव रखकर चले दो कदम  उससे आगे कहानी समर्पित रही  होंठ होंठो से प्रतिदान कर ही गए  बात चुप ही रही और बदल भी गयी  होश थे फिर भी थोड़ा सा बेहोश से  एक हसीं शाम जीवन की यूँ भी रही  

जादू है माँ..

 वो उंगुलियां छूँ जाय माथे को  जो हर नब्ज़ जानती हैं  एक तू ही तो है माँ  जो जादू जानती है   किताबों में वो ज्ञान कहाँ  जो तेरे अहसासों में है  एक तू ही तो है माँ  जो सब जानती है  जगती है सिहराने रातों में  सुबह मंदिर साजते दिखती है  एक तू ही तो है माँ  जो मेरे लिए सोना भूल जाती है  तेरे हाथों में दवा है माँ  तेरे हाथों में दुआ है माँ  एक तू ही है जिसके हाथों में  जादू है माँ.....

विसर्जन

 मन संगम की गंगा को  घर में सजाना चाहता है  संग रहे जल शीतल निर्झर  मन आधात का विसर्जन चाहता है।  मिट्टी राख लगाए तन पर  तुझमें खोना चाहता है  संग रहे लिपटे हो भुजंग  मन आधात का विसर्जन चाहता है।  बाँध के झोला सरहद पारे यायावर बनना चाहता है  संग रहे न बोझिल सांसे  मन आधात का विसर्जन चाहता है।  दे के सांसे जीवन तेरे  नाम ये तेरे करना चाहता है  संग रहे स्नेह की बातें  मन आधात का विसर्जन चाहता है। 

अंकिता

दो बेटियों का पिता हूँ. ....... दुनिया घूमी और देखी है फिर भी हमेशा लगता है कि मेरे पहाड़ दुनिया की सबसे खूबसूरत , शांत और सुरक्षित जगह है।  पर तब के  जिस पहाड़ की मैं आज कल्पना करता हूँ क्या वो आज भी वैसे ही खूबसूरत, शांत , सुरक्षित हैं ? 1991 के आरक्षण आंदोलन की शुरुआत के दिनों का एक छोटा सा आंदोलनकारी था और इसका मलाल हमेशा रहा कि 1991 के आरक्षण आंदोलन से पनपे राज्य आंदोलन का कभी हिस्सा नहीं बन पाया क्योंकि पढ़ाई के लिए आगरा यूनिवर्सिटी जाना हो गया। आंदोलन के आखिरी दिनों में जब पौड़ी -श्रीनगर में आंदोलन के उग्र रूप ने करीब करीब तक के सब सरकारी प्रतिष्ठान जला दिए थे , वैसे ही किसी दिन घर जाते समय  श्रीनगर में बस में पास  बैठी एक लड़की से जब मैंने पूछा था -" भूली- उतना बड़ा आंदोलन और आगजनी होती हुई तो नहीं दिखी जितनी अख़बारों में पढ़ी थी "।  बहुत गर्व से उस लड़की ने कहा था " न भाई बहुत बड़ा आंदोलन किया है राज्य के लिए सब जला दिया था --- अब राज्य मिलकर रहेगा " राज्य तो मिला पर अंकिता की हत्या के बाद मुझे बार बार उस लड़की का वो गर्व वाला  चेहरा याद आ रहा कि क...

कुछ सफर सुहाने

 रास्ते कहाँ सब मंजिल तक ले जाते हैं  कुछ सफर सुहाने होते हैं अफ़साने बन जाते हैं  तलाशता जीवन भर घूमता कस्तूरी सा  जंगल मोह लगा आया खुद को न पहचान सका  कुछ सपन सजोये ऐसे हैं  जो जानता अधूरे हैं  मृगतृष्णा रेगिस्तां की दौड़ दौड़ सम जाना है शहरों शहरों भटका हूँ खुद को न मैं ढूढ़ सका  कुछ गलियारे ऐसे हैं  जिनमे धसते जाना है  सूखती नदी सा समंदर कबसे दूर रहा  ताजगी हिमालय संग समेटे रहता हूँ  कुछ विश्वास हैं ऐसे   जिनके संग ही बहाना है  रास्ते कहाँ सब मंजिल तक ले जाते हैं  कुछ सफर सुहाने होते हैं अफ़साने बन जाते हैं 

अपनेपन की सरहद

 अपनेपन की सरहद होती  तो अच्छा होता  पता तो होता  कि सीमाएं रोकती हैं  स्पर्श का स्नेह कोई धागा होता तो अच्छा था  पता तो होता  की टूटने से जुड़ सकता है  खिल उठता जो बीज पड़ा है  तो अच्छा होता  पता तो होता  स्नेह कभी भी रुका नहीं है  कह जाता दो बातें तू भी  तो अच्छा होता  पता तो होता  तूने भी कुछ शुरुवात करी है  दो चित्र समेटता तू भी  तो अच्छा होता  पता तो होता  संग तेरे कैसे लगता है  मैं नदी था बह चला  सीमाएं टूटी सरहद भी  बस में कहाँ है  कि तटस्थता सीख लूँ