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चल मन

 सबके अपने लाक्षागृह हैं  सबके अपने कोपभवन सबका ही अभिमान बडा है  सबके अपने लक्ष्य अलग अपने अपने लोग सधे हैं  समय बटा है घौर अलग अपने अपने झूठ गढें हैं  अपने हैं आदर्श अलग बिछ जाना नियति है मेरी  आत्मसात परवाह कहाँ चल मन तु भी भीड बहुत है  सबकी है पेशेदारी  अलग अलग हैं जिम्मेदारी  चार चार चेहरे सबके चल मन तु भी काम बहुत है  रात हुई गहरी काली सुबह सबेरा फिर होना है  शाम बही नगरी सारी बजडी पर फटते हैं बादल  प्रघात हुआ है कुछ भारी कुछ कविता ने सांसे थामी  कुछ लौं मध्धम होती है चल मन तु भी बैठ किनारे  गंगा अभी ऊफनती है

तुझतक

मेरे पर्वत मेरे झरने  बहती नदियां तुझ तक हैं माली उपवन आंगन खुशबू  घर की क्यारी तुझ तक है बाबू जी की कलम स्याही  माँ की हसिया तुझ तक है राह तरसती शाम उदासी  इन्तजार बस तुझ तक है जलता दीपक बुझती शमा बची आस बस तुझ तक है  पूरी किताब आखिरी पन्ना निष्कर्ष जीवन तुझ तक है फैला है हर कोने सागर  सार हमारा तुम तक है रोशन होगा जग सारा ही मन का उजाला तुझ तक है

शून्य ही

कुछ सुनहरे अहसासों पर  कुछ अधूरे रास्तों पर  कुछ दाग- बेदाग लिए कुछ लांछन-भरोसा लिए हर सफर खत्म होता है कुछ अधूरी सी मंजिलों पर अपनों की प्रार्थमिकता पर कुछ नींद की पहरेदारी पर कुछ किताबों के आखरों पर हर सफर खत्म होता है कुछ आखिरी सांसों पर  कुछ पर्यायों और कतारों पर  कुछ अधजगी सी रातों पर  कुछ डगमगाते विश्वासों पर हर सफर खत्म होता है।

सफर खत्म होता है

कुछ सुनहरे अहसासों पर  कुछ अधूरे रास्तों पर  कुछ दाग- बेदाग लिए कुछ लांछन-भरोसा लिए हर सफर खत्म होता है कुछ अधूरी सी मंजिलों पर अपनों की प्रार्थमिकता पर कुछ नींद की पहरेदारी पर कुछ किताबों के आखरों पर हर सफर खत्म होता है कुछ आखिरी सांसों पर  कुछ पर्यायों और कतारों पर  कुछ अधजगी सी रातों पर  कुछ डगमगाते विश्वासों पर हर सफर खत्म होता है।

गाँव

शहर के शौर में गाँव विरान रहता है यादें साथ चलती हैं सफर तन्हा सा रहता है वो छूटी हैं मंजिलें कई कदम थकते नही मेरे मैं गाँव हूँ साहब गाँव लौट आवूँगा समुन्दर के आगोश ने दिया मुझको सहारा यूँ समाया हूँ मैं जग सारा शूंकूँ की छाँव पायी है पहाडों से उतरकर मैं बहाँ हूँ इस डगर पर ही तु ही मंजिल रही मेरी तु ही मेरा निशां होगा

महात्म

जिस मन में कुछ अंकुर फूटे जिन बीजों में जीवन है वो आस पालते रहे सदा हर बर्फिले तूफानों में संयम का साथ कहाँ  छूटा है कहाँ बोझ मन पडा रहा जब जब रूठा जीवन मुझसे बाबा तेरा साथ रहा कुछ राहें चलनी बाकि हैं कुछ सफर अभी अनजाने हैं कुछ गीत अधूरे छूटे हैं  कुछ जोर-ओ-अजमाईश है मैं एकान्त का औगण बाबा धूनी रमाऐं वहाँ बसूँ उस जीवन का क्या महात्म बाबा जो जीवन तेरे पास नही

तर जायेंगें

कसम ये है कि जहाँ तक राह हो हमसफर रहना मैनें तुझे हर मोड पर मुझको अजमाते देखा  वो तीगुने हैं साल मेरे अहसासों के तुझसे यूँ वक्त बे-वक्त भावनाओं को न तोला जाये मैं पत्थर था कि तराशा है एक कारीगर ने मुझे फिर कोई औरंगजैब मुझे पत्थर बना नही सकता एक तेरे छूने भर से रामसेतु की शिला हैं हम तर जायेंगें या कि अहिल्या से जम जायेगें 

नैपथ्य

इसी किसी नैपथ्य के पीछे कुछ आवाजें आयी होंगी  बरबर मुड जाती हैं नजरें  कुछ हिलोर मन जाती होगी यादों की बस्ती में विचरित कुछ कविताऐं गायी होंगी झुकी रही जो पलकें अक्सर कभी  नजर मिलायी होगी इसी किसी मंजर की बातें मन ने मन से की तो होंगी पूछे होंगें सवाल अधूरे कभी तो उत्तर ढूँढे होंगे

बात होती है

 कम होती है कभी ज्यादा होती है  होती है हम दोनों की बात होती है  लड़ते हैं झगड़ते हैं रूठते मना लेते हैं  होती हैं हम दोनों में भी खुन्नस होती है सपने देखते हैं सपने सजाते हैं  डरते हैं कभी, कभी हौंसला दे जाते हैं  शक करते हैं समझ लेते हैं  होती हैं हम दोनों में भी लड़ाई होती है चुप वो भी रहते हैं चुप हम भी होते है  गुमशुम ही सही बात फिर भी होती है मिलते हैं मिलाते हैं अलग और साथ हो जाते हैं  होती हैं हम दोनों में भी बहस होती है समझते हैं समझाते हैं  एक दूसरे के बिना रह नहीं पाते हैं सोते हैं जागते हैं  रिश्तो की दुनियां बनाते हैं 

प्राण प्रतिष्ठा

यूँ पत्थर ही था मन ये मेरा तु प्राण प्रतिष्ठा कर बैठा ना पत्थर मुझको छोडा है ना खुद को मुझमें समा बैठा बरसों की एक प्रतिक्षा थी लम्बी सडक सुनसानी थी तु मोड उसी पर ले आया मंजिल फिर अब दूर लगी  मै राहों की घूल मिल गया न पाषाण रहा रजधूली का मैं खंण्डित-भंजित मूर्ति सा बस राह तका तकता ही रहा