प्राण प्रतिष्ठा

यूँ पत्थर ही था मन ये मेरा
तु प्राण प्रतिष्ठा कर बैठा
ना पत्थर मुझको छोडा है
ना खुद को मुझमें समा बैठा

बरसों की एक प्रतिक्षा थी
लम्बी सडक सुनसानी थी
तु मोड उसी पर ले आया
मंजिल फिर अब दूर लगी 

मै राहों की घूल मिल गया
न पाषाण रहा रजधूली का
मैं खंण्डित-भंजित मूर्ति सा
बस राह तका तकता ही रहा

Comments

Popular posts from this blog

कहाँ अपना मेल प्रिये

दगडू नी रेन्दु सदानी

कल्पना की वास्तविकता