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मानता कब है

कश्तियाँ बहा ले गए वो तूफां और थे  गरज गए जो बदरा वो बरसते कब हैं लौटकर आना पड़े समुन्दर की सीमा है  वरना पंछी को उड़ने की मनाही कब है तोड़कर बंदिशें आसमा में फ़ैल सकता है  संस्कारो में खड़ा पेड़ खुला बादल कब है  अपना हो नहीं सकता वो अपना लगता क्यूँ है  मन जानता सब है पर मानता कब है 

जब भी लगा

सहरा से निर्जन विस्तार पर यूँ लगा कमल सा खिल आया दो शब्द किसी ने लिख भेजे जब भी लगा वो भूल गया  पहाड़ों की शीतल चोटी पर  यूँ लगा तरूण मृग चल आया ऑंखों की पलकी झपकी है  जब भी लगा वो भूल गया  जंगल की घनी झाड़ियों से यूँ लगा पंछी कोई उड़ आया साँस की जिजीविषा लौटी है जब भी लगा वो भूल गया 

याद आयेगा

कभी अन्जान राहों का बटोही याद आयेगा कहीं ठुकरा दिया कोई वो पत्थर याद आयेगा ज़माने भर में घूमोगे वो मंज़र याद आयेगा कही कोने में सीमटा वो फसाना याद आयेगा  कही चुपचाप ढलता सा वो सूरज याद आयेगा  कहीं बदला मुडा कोई कदम फिर डगमगायेगा  बजार-ओ भर में घूमोगे वो ख़ालीपन सतायेगा कभी सूनसान राहों पर वो दस्तक याद आयेगा  कही टूटे मकामों का वो खंडहर याद आयेगा  कहीं सूने पड़े मन का बबंडर याद आयेगा  थककर हार बैठोगे निगाहों को भरम होगा  कभी गुमनाम क़दमों का वो चेहरा याद आयेगा 

अक्सर

ये सोचा कब था कि साथ हो  सामानांतर बह जाने कि ख्वाइशें अक्सर डुबो ही देती हैं उफनती नदी के वेग में  ये कब था कि पूजी जाय हर मूर्ति  पत्थरों को बोलते हुए देखने कि ख्वाइशें  अक्सर पत्थर बना ही देती हैं  भावनाओं के उदगार में  ये कब था कि पा लूँ सब कुछ  एकतरफा त्याग अपनाने की ख्वाइशें  अक्सर वैरागी बना ही देती हैं  समर्पण के सदभाव में 

हारा सा लगता हूँ

सफर पर विराम मिले  अब थका सा लगता हूँ  जी लूँ कुछ यथार्थ  वरना हारा सा लगता हूँ  जो गिने गए अपनों में  क्यों वीराने से लगते हैं कहना था सब कुछ जिनसे  वो गुमशुम से लगते हैं  राह अकेली राही था  साथ न तेरा माँगा था  साथ मिला जिनका पलभर  सब खोये से लगते हैं  जग से हारा हार न माना खुद से हारु ये डर है मानक शर्तें मुझ तक हैँ सब मुझे निभाने दे साथी !

यथार्थ

चल मन उतर आ कल्पना की दीवारों से यथार्थ की धरती पर छालें बहुत हैं  कल्पना के कोरे काग़ज़ों  के चित्र  बेरंग और और अमूर्त बहुत है 

खिसकती रेत

जो भूला सा लगा हरदम  उसे दोहरा गया हूँ  खिसकती रेत में फिर से  सपनों को सज़ाता हूँ  जो छूटा सा लगा हरदम  उसे पाता न खोता हूँ  उफनती क्षीर में फिर से  सपनों को तैराता हूँ  जो ग़ैरों सा रहा हरदम उसे मन में सजाया हूँ  धधकती आग में फिर से  ख़्वाबों को जलाता हूँ  जो भूला सा रहा हरदम उसे दिन दिन मैं गिनता हूँ  असंख्यित स्वर्ग में फिर से अंधेरों को भगाता हूँ 

भूला नही

हर सफ़र मे छांव कब है हर तलाश की मंज़िल नही  किसी को कुछ याद नही  कोई कुछ भुला नही  हर झरने पर प्यास कब है रेगिस्तां आँखों में पानी नही  कोई दो कदम साथ चला नही कोई दो कदम भूला नही  हर ख़ामोशी चुप कब है  मन का बबंडर शान्त नही  कोई आवाज देता नही कोई चुप्पी भूला नही  हर स्नेह स्पष्ट कब है हर शब्द बाहर निकला नही  कोई ग़ुस्सा आँसू में बहा गया  कोई आँसू को कभी भूला नही 

आपदा आखों देखी

आपदा आखों देखी   यह 14 जून 2013 की दोपहर थी जब मैं उत्तराखंड अपने घर  पहुंचा- मेरे महान राष्ट्र का एक खूबसूरत हिस्सा, तीर्थयात्रा का स्थान, हिमालय के ग्लेशियरों के लिए जाना जाने वाला-मोरेनेस- हिमनद , फूलों की घाटी का राज्य, कई बिल्डरों के लिए ड्रीमलैंड और सबसे महत्वपूर्ण मेरा मूल स्थान ' म्यरा  दांडी कठियूं  कू देश , म्येरू गढ़देश'। मेरी इस यात्रा में केदारनाथ  जाने की योजना थी।पर  अगले दो दिनों के भीतर मैंने सबसे बड़ी आपदा देखी , वह दर्द मैं हमेशा  महसूस करता हूं, मैंने अपने लोगों की दुखों की सीमा देखी, मुझे प्रकृति की कठिनाई महसूस हुई, मैंने बीमार राजनीतिक इच्छाशक्ति को देखा और अधिकारियों के प्रयासों को मारा हुआ पाया । अगले 6 दिनों में मैं बसुकेदार (भटवाड़ी) से सोनप्रयाग (त्रिजुगीनारायण) (… .. 50 गांवों से अधिक) के बीच कई गाँवों में घूमता रहा। ज्यादातर गाँवों में मुझे औरत की भयानक रोने की आवाज़ और बचे हुए आदमी का गुस्सा सुनाई देता रहा। मैंने सेना के जवानो  और 5 हेलीकॉप्टरों को जाख, नाला, सेरेसी और फाटा के विभिन्न स्थानों पर लोगों को ले जाते...

बात

बात स्नेह की कब थी  सम्मानों की थी  मनाना किसने चाहा था  बात,बात की थी  फ़ासलों में रहना या  फ़ैसला करने की थी  बात साथ चलने की कब थी  निभाने की थी   बात देखने की कब थी नज़ाकत क़दमों मे थी दायरे तो पहले से थे  दूरियाँ बढ़ाने की कब थी  गुमशुम थे सब नाराज जताने की कब थी  बात पाने की थी ही नही खोकर भूलने की न थी