अक्सर
ये सोचा कब था कि साथ हो
सामानांतर बह जाने कि ख्वाइशें
अक्सर डुबो ही देती हैं
उफनती नदी के वेग में
ये कब था कि पूजी जाय हर मूर्ति
पत्थरों को बोलते हुए देखने कि ख्वाइशें
अक्सर पत्थर बना ही देती हैं
भावनाओं के उदगार में
ये कब था कि पा लूँ सब कुछ
एकतरफा त्याग अपनाने की ख्वाइशें
अक्सर वैरागी बना ही देती हैं
समर्पण के सदभाव में
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