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नैपथ्य

इसी किसी नैपथ्य के पीछे कुछ आवाजें आयी होंगी  बरबर मुड जाती हैं नजरें  कुछ हिलोर मन जाती होगी यादों की बस्ती में विचरित कुछ कविताऐं गायी होंगी झुकी रही जो पलकें अक्सर कभी  नजर मिलायी होगी इसी किसी मंजर की बातें मन ने मन से की तो होंगी पूछे होंगें सवाल अधूरे कभी तो उत्तर ढूँढे होंगे

बात होती है

 कम होती है कभी ज्यादा होती है  होती है हम दोनों की बात होती है  लड़ते हैं झगड़ते हैं रूठते मना लेते हैं  होती हैं हम दोनों में भी खुन्नस होती है सपने देखते हैं सपने सजाते हैं  डरते हैं कभी, कभी हौंसला दे जाते हैं  शक करते हैं समझ लेते हैं  होती हैं हम दोनों में भी लड़ाई होती है चुप वो भी रहते हैं चुप हम भी होते है  गुमशुम ही सही बात फिर भी होती है मिलते हैं मिलाते हैं अलग और साथ हो जाते हैं  होती हैं हम दोनों में भी बहस होती है समझते हैं समझाते हैं  एक दूसरे के बिना रह नहीं पाते हैं सोते हैं जागते हैं  रिश्तो की दुनियां बनाते हैं 

प्राण प्रतिष्ठा

यूँ पत्थर ही था मन ये मेरा तु प्राण प्रतिष्ठा कर बैठा ना पत्थर मुझको छोडा है ना खुद को मुझमें समा बैठा बरसों की एक प्रतिक्षा थी लम्बी सडक सुनसानी थी तु मोड उसी पर ले आया मंजिल फिर अब दूर लगी  मै राहों की घूल मिल गया न पाषाण रहा रजधूली का मैं खंण्डित-भंजित मूर्ति सा बस राह तका तकता ही रहा

राम

मेरे मन जो राम बसे हैं  वो सीता माँ के साथ बसे हैं होगी बाल छवि अति मधुरम मेरे मन पिनाक उठाये बसे हैं मेरे मन जो राम बसे हैं वो लखन हनुमन्त साथ बसे हैं चलते होंगें ठुमक रामचन्द्र मेरे मन दृढ संकल्प बसे हैं मेरे मन जो राम बसे हैं वो जंगल जंगल घूम रहे हैं होते होंगें चन्द्रमुकुट सब मेरे मन बनकल पहने हैं मेरे मन जो राम बसे हैं वो समुन्द्र पर सेतु तर रहे हैं होतें होंगे दीप वो जगमग मेरे मन अंहकार मारे हैं मेरे मन जो राम बसे हैं वो सीता माँ के साथ बसे हैं

सर्द मौसम

एक तो मौसम सर्द हुआ है एक रूठी सी दुनियां है  सबके अपने राग द्वेष हैं सबके अपने अपने लोग मेरा रास्ता तेरी गली का मेरी मंजिल साथ तेरा तु रूठे तो जग रूठा है तु हंस दे तो काम तमाम तु सुबह की पहली किरण हो तु दिन का छंटता कुहरा हो तु शामों की सर्द हवा तु रातों की गर्माहट हो

भूल हुई

 मन रे तुझसे भूल हुई  तूने समर्पण करवाया है  छीना है वक़्त किसी का तो  किसी पर वक़्त गंवाया है  शब्द गढ़े हैं अधूरे से  आधा सा जीवन जीया है  छीनी है ख़ुशी किसी की तो  किसी पर ख़ुशी लुटाई है  राह नहीं चले हैं पूरा  मंजिल दूर अदृश्य रही  हाथ पकड़कर चले हैं किसी का  तो किसी से हाथ छुड़ाया है 

राम गीत

हम राम कहाँ हो सकते हैं हमें राम राह दिखलायेगें  शबरी के झूठे बैरों से स्नेह अन्नत दिखलायेगें  मुश्किल हो जिस जलधारा को अनुनय विनय मनायेंगें  केवट की साद तपस्या को मान चरण धुलवायेंगें  छूपकर पेडों के पीछे से  अमर्यादा बाली  की तोडेगें  गिलहरी ये यत्न प्रयत्नों को इतिहासों में लिखवायेंगे  वो मात पिता के बचनों को जंगल जंगल भी निभायेगें  देकर सीख जीवन की सब वो सरयू में बह जायेगें  हम राम कहाँ बन सकते हैं हमें राम राह दिखलायेंगें

जुगनू हूँ

शहर की शाम में   चेहरा गुम है तेरा  साथ है हर वक्त और  जिक्र गुम है तेरा संवादों से परे भी  एक दुनिया है मेरी चुप गुमशुम सी  नाराज जिन्दगी है मेरी अहसासों का अंबार  और यादों की ताबिर है शहर में हल्ला बहुत है  मन बडा खामोश है रौशनी में चौन्धियाना  न आया है मुझे जुगनू हूँ  मुझें अंधेरों का इतबार है

हाथ मेरा पकड़ोगे तुम

 क्या अबके जब फिर बारिश होगी  हाथ मेरा पकड़ोगे तुम  छोड़ के सारी लोक लाज सब  संग मेरे भीगोगे तुम ?  क्या अबके जब फिर घिरेंगे बदरा बाहें भर जकड़ोगे तुम  सुध बुध अपनी खोकर सब  संग मेरे नाचोगे तुम ?  पीली सरसों तीतर बोले  क्या आवाज़ लगाओगे तुम  मिला के सुर में सुर मेरे  क्या मेरे संग गाओगी तुम ?  क्या जब लम्बी कोई सड़क रहे  मेरे साथ बैठोगी तुम  देकर अपना हाथों हाथ  क्या मेरा हाथ पकड़ोगी तुम ?

तरंग

शान्ती तु शुकून तु मेरे मन का हर चैन तु तु स्पर्श है अहसास का तु बन्दगी मेरी सांसो की तुझे देखूँ तो शूकून है तुझे देखूँ तो शान्ती मेरी छूँ लूँ तो तरंग है साथ तु समर्पण भी तु खुशी में तु तनाव में तु जीवन के हर जज्बात में तु पाना खोना रब के हवाले मेरे स्नेह की मर्यादा है तु