बात कोई 1994-95 की होगी, इन्ही बरसाती दिनों की जब बस में ऋषिकेश से पहाड़ो का सफर बड़ा मुश्किल सा लगता था. जगह जगह पहाड़ खिसके होते थे और एक दिन का सफर दो दिन का हो जाता था. क्योकि मै ऋषिकेश से बस में बैठा था इसलिए मेरे पास सीट थी, नहीं तो तब पहाड़ी बसों में नेगी जी के " चली भे मोटर चली...." गाने जैसी ही हालत होती थी. थोड़ा पढ़ाई और संस्कारो की वजह से उस दिन मुझे कुछ बार अपनी सीट किसी 'वोडा' या 'बोडी' के लिए देनी पड़ी थी. ऐसे ही बारिस में रुकते चलते बस श्रीनगर से आगे बढ़ी , वही कही सड़क किनारे से बारिस में 'खतखत' भीगी कोई लड़की बस में चढ़ी. बरसात में बुरी तरह भीगी और ठंड से कपकपाती लड़की को में अपनी सीट दे दिया . उस शौम्य से शरारती चेहरे वाली लड़की से उसका छोटा सा छाता पूरी तरह से बंद नहीं हो रहा था तो वो छाता उसने हमे पकड़ा दिया और मैंने जैसे तैसे उस छाते को बंद कर दिया. बारिस में पूरी तरह भीगी लड़की, बुरी तरह ठंड से काँप रही थी तो मैंने अपना हल्का पतला जैकेट उतारकर उसे दे दिया और उसने भी बिना किसी ना नुकुर के उसे पहन लिया. तब करीब दो घटे के उस सफर ...
एक आधा अधूरा चिंतक होने के नाते कई बार सोचता हूँ की क्या कल्पना में कोई वास्तविकता छुपी हुई है । क्या कल्पना से वास्तविकता का जन्म हो सकता है। आखिर कल्पनायें हैं क्या ? सिर्फ मन की गूढ़ता या किसी यथार्थ का चिंतन। कल्पनाओं के झाड़ पर बैठकर कई बार कविता का सृजन करते समय मुझे लगता है की क्या कल्पना मानव मन की सृजनशीलता की पहली कड़ी है। क्या कल्पनाएं झूट का पुलिंदा मात्र हैं और सत्य सदैव अपरिवर्तनीय होता है या फिर कल्पनाओं में भी जीवन का एक सार है , एक गूढ़ता है और एक रचा बसा संसार है ? कभी कभी मस्तिष्क मन में बनीं कुछ सोचों, कल्पनाओं या छवियों का मूल्यांकन करता है जिन्हें वह संसाधित करना चाहता है , कल्पना वास्तविकता की सीमा का आधार सा लगती है । यदि कल्पनाओं के संकेत सीमा पार कर जाता हैं , तो मन सोचता है कि यह वास्तविक है यदि ऐसा नहीं होता है, तो मन सोचता है कि यह काल्पनिक है। काल्पनिकता कभी कभी यतार्थ को जन्म देती सी लगती है । जान तक मन विचार शून्य है तब तक न कल्पना का आधार है न वास्तविकता की परिधि। वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए कल्...
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