कुरुक्षेत्र
वो अँकुर विश्वासों का
कब खिला ये पता नहीं
और उसके बाद तेरे सम्मान मे
कभी कोई कमी की नहीं
तु ही था जो समानांतर था
जिसने पहले अपनापन दिखाया था
और उसके बाद तुझे अपनो से
कभी बाहर गिना नहीं
तु भी था शायद रचता रहा चक्रब्यूह
मै युयुत्सु तुझको मान बैठा
जानने सत्य की कोशिश तो करता
मेरा साथ देता ये ज़रूरी न था
तु अभी भी मन-द्वद का रणक्षेत्र है
तु अब भी अपनो मे पीतामह सा लगा
तुझे तो हार ही जाना था मुझे
पर इस कुरुक्षेत्र मे हारुगां नहीं
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