फिर भी
वो मौन आवाज़ मन के पार से थी
सुनाई तो नहीं दी कभी फिर भी
दूर पहाड से आती ढोल की सी लगी
वो नज़र जिसने देखा नहीं कभी जी भरकर
अपनी ओर घूरती सी लगी फिर भी
बादलों मे लुका छिपी करती कोई किरण सी लगी
वो स्नेह जिसे कोई नाम तो नहीं दे पाया
अपनों मे भी बेगाना सा कर गया फिर भी
परायों को पाने को पनपती कोई कशिश सी लगी
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