दो नैना

                  वो दो नैना उस चंचल के

नभ मण्डल मे सबसे सच्चे थे
अधरों के उपर सजे हुए थे 
मेघों से वो घिरे हुऐ थे 
सावन की सी रातों के 
             
               वो दो नैना उस चंचल के 

वो जाम सुरा से लगते थे
उन्हें पीना भी हम चाहते थे 
उस जाम को छूना चाहते थे
वो ना जाने किस हाल मे है 

              जो थे वो दो नैना उस चंचल के

बरसात जो उनमें आते थे 
रोके वो न रुक पाते थे 
उसे रोकना भी हम चाहते थे 
उस बरसात मे भीगना चाहते थे

                   वो दो नैना उस चंचल के 

वो मेघ भी झूठे बरसे थे
वो जाम सुरा के झूठे थे
जिन्हें पीना भी हम चाहते थे 
वो सबके सब ही झूठे थे 

              जो थे वो दो नैना उस चंचल के 

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