तु
क्षितिज के छोर पर
पलाश के फूल सा
लाल ओढ़नी ओढ़े
आज भी तु है
ढूँढता हूँ कहीं
क्षितिज के छोर पर
मेरे लिए तेरा अस्तित्व
रक्त किरणों की तरह है
सबसे दूर चले जाने पर
ढूँढता हूँ उस लालिमा को
जहाँ पर असीम शान्ती
यादो की पवित्र धूली मिलती हैं
और मिलता है वो अपनापन
जिसे मैं बाँटना नही चाहता
तु मेरे लिए उद्देश्य नही
मेरी हार मे भी जीत रहा
इच्छायें होती अन्नत
या मन होते दस बीस
पर काश हो न सका
और ढलता ही सही तु सूरज सा एक रहा
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