मुठ्ठी की रेत
वक़्त मुठ्ठी की रेत सा फिसल चला
शख़्स शहर को बीरान कर चला
जुगनु के गुम होने का यूँ ग़म न होता
जो अगले बरस लौटने का इशारा होता
हिमालय को पिघलती बर्फ बेरंग कर गयी
धैर्य रावण सा जाने कैसे कमजोरी बन गयी
खुद के गिरते गुमान का यूँ ग़म न होता
जो भूकम्प मन को तेरे सामने यूँ गिराया न होता
नीड़ विश्वास का बँधा रहा शाख़ पर तूफ़ा में
क़दमों का रुकना आशाओं को सहारा देता रहा
दौड़ने को तो कौन नही दौड़ नही सकता
ठहर कर किनारे पर तुझे खोने का दर्द लिखता रहा
Comments
Post a Comment