विचारों की स्याही

कभी अकेले में बैठना 
अन्तर्मन से चुपके पूछना 
क्या सब वहम था 
या कहीं सासों में धुआँ था

यूँही लिखते हुए कभी 
क़लम को छोड़कर पूछना 
कभी सहमी थी कि नहीं
या कहीं विचारों की स्याही शून्य थी

कभी किताबों के पन्नों पर 
नज़र दौड़ाते समय ये देखना
कभी भटकी थी कि नहीं 
या कहीं निगाहों में कोई कसक थी 

यूँही सरपट दौड़ते राहों में
थके क़दमों से ये जरुर पूछना 
कभी ठिठके थे कि नहीं
या कहीं तेरी प्रगति में बाधा खड़ी थी ..

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