न जाने कब

हर बार बात किसी
विराम पर ख़त्म नहीं होती
अक्सर कुछ खाली स्थान
छोड़ देता हूँ उसके लिए
कि शायद कुछ भर दे वो उनमे

हर बार सपने किसी
मक़ाम पर नहीं पहुँचते
अक्सर झट उठकर
बाकि छोड़ देता हूँ उसके लिए
जाने कब सपनो में रंग भर दे


हर बार मन का सोचा
सब सच नहीं होता
अक्सर आधा सोचकर
आशा को रोक देता हूँ उसके लिए
जाने कब अपनापन सम्मान दे दे 

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