सोचा कि ...
दूर कहीं यूँ अकेले में
जब याद आया वो ताना बाना
सोचा तो विश्वास से बड़ा ज़मीर क्या
मन के सम्मान से बड़ा अपनापन क्या
यूँही अकेली रातों में
जब सोचा स्नेह तृष्णगी का वो रिश्ता
सोचा कि आँसुओं से बड़ी सच्चाई क्या
और नज़रों के झुकने से बड़ी इबादत क्या
यूँही गुमशुम ख़्यालों में
जब कोई मन से एक पल दूर न हो
सोचा कि चेहरे के भाव से बडी शिकायत क्या
और चेहरे की छोटी सच्ची हँसी से बड़ी उम्मीद क्या
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