समर्पण
वो कुछ कहता नही फिर भी
उसकी दुआएँ पहुँच जाती है
वो सीमित ही लिखता है फिर भी
उसके मन की आवाज़ पहुँच जाती है
रिश्ते का कोई नाम न है फिर भी
उसका अपनापन छूँ ही जाता है
असल मे तो वो मिला ही है कुछ पल
पर वो साथ चलाता ही लगा हर पल
उसका पहला हक़ है ‘बन्दगी’ पर
वो अपनों के हर रुप मे शामिल है
दूरियों मे रहा हमेशा फिर भी
घर में याद बनकर समाया है कहीं
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