श्रृंखला
जिस भी शहर में कदम भटकते हैं
दो चार साथ हो जाते हैं
क्या कहूं कि वो भटके हुए हैं
जो मेरे साथ साथ चले आते हैं
कोई नहीं जागृत करता इनको
खुद ही हाथ बढाये जाते है
शायद ये उत्पीड़न से जकड़े हुए हैं
जो सडको पर उतर आते है
अवरोध पर उतारू अंजाम से दूर
दम नहीं है पर दम लगाकर चिल्लाते हैं
निहत्थे मौत के सामने
हाथ उठाए सीना ताने चले आते हैं
उतर आता है बारूद, पार हो जाता हैं
सरेआम सडको पर लांशों का देर जम जाते हैं
कोई आये कफ़न डाले या खूब रोले
या फिर लाश में आदमी साद जाते हैं
इसी भीड़ का एक पथिक हूँ
लोग समुदाय को बड़ा जाते है
दिखते है असहाय उपेक्षित कुछ लोग
जो स्वर में स्वर मिलाये जाते हैं
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