दावाग्नि
बरस हो गये अब तो आजा
बरखा बिन बदरा भी बरस जा
कोपलों को इन्तज़ार है
सुखा डाले तु एेसा निर्दयी नही
हर दौर से गुज़रा है मातम
शहर मरघट होते देखा है
वो बुझते दीपक की लौं सा
तु बलबलाके ख़त्म हो नही सकता
कटते पेड़ों की पीड़ा खामोश है
चिल्लाएँगे तो जहां रो पड़ेगा
ज़र्रा- ज़र्रा तिल-तिल जलता है
तु अब दावाग्नि सा झुलसा गया
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