किस क़दर
ओ शब्दों! तुम उसे बता देना
कि बिछुड़ने की ‘बणांग’ ने
जलाया है ‘मन’ को किस क़दर
वो संगीत जो छूट सा गया
अब सुना तो नैपथ्य मे बजता लगा
रुलाया है ‘मन’ को किस क़दर
वो रोशनी जो प्रज्वलित कर गयीं
बर्क बनकर गिरी है ज़मीं पर
सुखाया है ‘मन’ को किस क़दर
आशा के टीले फिर भी टूटे नही है
बिछड़े तो हैं पर रुठे नहीं हैं
इन्तज़ार है ‘मन’ को किस क़दर
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