बेगानों सा रहा
वो बहुत घाटे का सौदा था
जहाँ भीत बनकर धोखा था
वो जो खाईयां गहरी करता गया
तटबन्ध थामने का जिसपे ज़िम्मा था
वो मन की सबसे बड़ी दौलत थी
जो गश बेहाली में भी अपनी थी
वो अपनो सा तारो को जोड़ता गया
जो यूँ तो हर बार बेगानों सा ही रहा
वो अकेलेपन की सुनहरी यादें थी
जो तेरे रास्तों पे अक्सर भटकती थी
बार बार चौखट पर दस्तक देता लगा
जो यूँ तो दूर से हर बार घूरता मिला
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