तलाशता रहा
जब सफ़र ख़त्म होने को था
वो यूँ मकां बनके आया
कोई मंज़िलों को बढ़ चला
कोई घर तलाशता रहा
मंदिरों में घंटी की आवाज
हर बार पास बुलाती रहीं
ढेंठ अक्खण धुनि रमायें रहा
मन था कि तलाशता रहा
शाम के कुहरे मे रास्तो की कोशिश
हर बार सपनों को भटकाता रहा
कदम बहुत हुऐ तेरे घर चलने को
डगमगायें हाथों से कुण्डी तलाशता रहा
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