तब तक
बताने को तो तजुर्बा भी था
जताने को अहसास भी था
ये स्नेह तब तक ही सच्चा था
जब तक सबकुछ एकतरफ़ा था
छुपाने को ख़ुशियाँ भी थी
कहने को कहानियाँ भी थी
ये शाम तब तक अपनी थी
जब तक कभी रुलाती न थी
बाँटने को तो यादें भी थी
लिखने को थोडे ग़म भी थे
ये क़लम तबतक ही अपनी थी
जब तक कभी चली न थी
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