लम्हों की मुढेंर
उन लम्हों की मुढेंरों पर
बिखरा रहा कुछ यूँही
वो लजाकर मेज़ पर
पसर गया था कभी
उन दिवारों के उंचाईयो पर
अटका रहा कुछ यूँही
वो ठिठकर भी जिद कर
फिर उड़ चला था कभी
रंगीन सपनों के ‘पोस्टरों’ पर
सफ़ेद रहा उसका रंग यूँही
वो अदृश्य सी छाप देकर
दूराहे पर छोड़ गया था कभी
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